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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग में परस्पर साम्य-वैषम्य एवं वैशिष्ट्य
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यद्यपि जैनागमों में यत्र-तत्र ध्यान विषयक प्रचुर-सामग्री उपलब्ध होती है किन्तु उस पर व्यवस्थित व सर्वांगीण जैनयोग-साधना पद्धति का भवन खड़ा नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्राचीन जैन-परम्परा में पातञ्जलयोगसूत्र की तरह योग-साधना का व्यवस्थित ग्रन्थ लिखा ही नहीं गया था। योग (अध्यात्म-साधना) का आधार 'आचार' है क्योंकि आचार से ही योगी के संयम में वृद्धि होती है तथा समता का विकास होता है। अतः प्राचीन ग्रन्थों में जैनयोग-साधना का प्रतिपादन आचारशास्त्र (चारित्र) के रूप में हुआ है। बाद में गृहस्थ साधक के 'आचार' को गौण मान कर मुनिचर्या पर अधिक बल दिया जाने
मुनिचर्या के प्रमुख अंग 'वैराग्य' व 'ध्यान' की विशेष व्याख्या करने वाले अध्यात्मपरक ग्रन्थों का प्रणयन प्रारम्भ हुआ।
ईसा की ७वीं शती तक जैनयोग साहित्य में आगम-शैली का ही प्राधान्य रहा। आगमयुग से लेकर वर्तमानयुग तक आगम साहित्य पर अनेक विद्वानों ने अपनी लेखनी चलाई, किन्तु जैनयोग-साधना के व्यवस्थित व सर्वांगीण स्वरूप को प्रस्तुत करने वाले स्वतन्त्र व मौलिक ग्रन्थ लिखने की परम्परा का सूत्रपात लगभग ८-६ वीं शती के आस-पास हुआ। सम्भवतः उक्त प्रयास पातञ्जलयोगसूत्र, तत् सम्बद्ध साहित्य व उसकी विचारधारा की लोकप्रियता से प्रभावित होकर किया गया हो। उक्त ग्रन्थकारों में सर्वप्रथम व सर्वाग्रणी आचार्य हरिभद्र हैं जिन्होंने पातञ्जलयोगसूत्र तथा उसकी योग-साधना से सम्बद्ध सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए उसी के समकक्ष जैनयोग-साधना का विविध परिप्रेक्ष्यों में व्यवस्थित एवं समन्वयात्मक स्वरूप प्रस्तुत किया।
आ० हरिभद्र (८ वीं शती) के समय में देश में योग-साधना विविध रूपों में प्रचलित थी। जहाँ एक ओर बौद्धों द्वारा मन्त्रयान, तन्त्रयान और वज्रयान आदि का तीव्रता से प्रचार किया जा रहा था, वहीं दूसरी
ओर सिद्धों ने 'सिद्धयोग' का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया था। सामान्य जनता न तो तन्त्रों, विशेषकर वाममार्ग के रहस्य को समझ पाने में समर्थ थी और न ही सिद्धों के 'सिद्धयोग' से प्रभावित हो सकी थी। परिणामस्वरूप उनमें दुराचार व व्यभिचार फैलने लगा। तत्कालीन जैन समाज की धार्मिक स्थिति भी अच्छी न थी। जैन-परम्परा में जहाँ एक और चैत्यवास विकसित हो चुका था वहीं स्वयं को श्रमण अथवा त्यागी कहने वाले वर्ग ने मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा, जिनपूजा आदि बाह्य क्रियाकाण्डों को अधिक महत्व देना प्रारम्भ कर दिया था। जिनप्रतिमा और जैन मन्दिर तथाकथित श्रमणों की ध्यानभूमि या साधनाभूमि न बनकर भोगभूमि बन रहे थे। साम्प्रदायिक मतभेद वर्तमानयुग की भांति चरमसीमा पर था। स्वयं आ० हरिभद्र द्वारा जैन धर्म अंगीकार करने से पूर्व जिनप्रतिमा का उपहास करना, उनके शिष्यों का गुप्त रूप से बौद्ध मठों में जाकर शिक्षा ग्रहण करना तथा रहस्य खुलने पर बौद्धाचार्यों द्वारा उनकी हत्या कराया जाना आदि सभी घटनाएँ ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन-परम्पराओं में विद्यमान पारस्परिक द्वेष एवं घृणाभाव की स्पष्ट झांकी प्रस्तुत करती हैं। उस युग में धार्मिक क्षेत्र की भाँति दार्शनिक क्षेत्र भी खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति से अछूता न था। ऐसी विषम परिस्थितियों का तत्कालीन साहित्य पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। यही कारण है कि इस युग में तुलनात्मक अध्ययन की प्रवृत्ति भी प्रारम्भ हो गई थी। वैदिक एवं बौद्ध योग के साथ समन्वयात्मक सम्बन्ध रखना तथा उनके दृष्टिकोण को समक्ष रखकर अपने वैशिष्ट्य का उपस्थापन करना इस युग के जैनाचार्यों की प्रमुख विशेषता थी। इतना ही नहीं, उनके पारिभाषिक
१. जैन. सागरमल "हरिभद्र के धर्ग-दर्शन में क्रान्तिकारी तत्व'. बी० एल० इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलॉजी, दिल्ली. द्वारा १६८७
में आयोजित 'आचार्य हरिभद्रसूरि संगोष्ठी में पठित लेख, पृ०४ २. द्रष्टव्य : अकलंककथा; न्यायकुमदचन्द्र, प्रस्तावना ३. वही
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