Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 283
________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग में परस्पर साम्य-वैषम्य एवं वैशिष्ट्य 265 योग के आद्य प्रवर्तक कौन थे, इस सम्बन्ध में वैदिक परम्परा 'हिरण्यगर्भ को योग का आद्य वक्ता मानती है।' महाभारत में प्राप्त उल्लेखानुसार यह द्युतिमान हिरण्यगर्भ वही है जिसकी वेदों में स्तुति की गई है। योगी लोग नित्य इसकी पूजा करते हैं। जैन-परम्परानुसार योग के आद्य प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव थे। महापुराण में कहा गया है कि ऋषभदेव के अनेक नामों में एक हिरण्यगर्भ था।" वैदिक पुराणों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव भगवान विष्णु के पांचवें परन्तु प्रथम मानव अवतार थे। श्रीमद्भागवत में एक स्थल पर "भगवान् ऋषभदेवो योगीश्वरः ६ कहकर भगवान् ऋषभदेव की प्रथम योगीश्वर के रूप में स्तुति की गई है और अन्यत्र हिरण्यगर्भ को योगविद्या का आद्य प्रवर्तक कहा है।" जैन वाङ्मय में भी भगवान् ऋषभदेव की हिरण्यगर्भ के रूप में स्तुति की गई है। उक्त विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हिरण्यगर्भ और ऋषभदेव दोनों एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं जो योग के आद्य प्रवर्तक थे। ___ सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्राप्त ध्यानस्थ योगी की नग्नावस्था और कायोत्सर्ग मुद्रा (पद्मासन) में प्राप्त मूर्ति को देखकर पुरातत्त्ववेता यह अनुमान लगाते हैं कि उक्त मूर्ति प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की है। चूँकि भगवान् शिव का स्वरूप भी दिगम्बर (नग्न) था इसलिए कुछ विद्वान उक्त मूर्ति को भगवान् शिव की मूर्ति बताते हैं । उनके इस तथ्य से ऋषभदेव और शिव की एकाकारता की ओर भी विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ । इसी आधार पर श्री रामचन्द्र दीक्षितार ने ई० सन् ३००० वर्ष पूर्व तथा उससे भी प्राचीन भारतवर्ष में प्रचलित योग-साधना को पाशुपत योग-साधना का प्रारम्भिक रूप माना है।" उपर्युक्त चूंकि पदमासन में उत्कीर्ण है इसलिए कुछ विद्वान हठयोग का प्रारम्भ भी प्रागैतिहासिक काल से ही स्वीकार करते हैं । २ हठयोग में 'आदिनाथ' को हठयोग का आद्यप्रवर्तक मानते हुए उनकी स्तुति की गई है। आदिनाथ 'ऋषभदेव' अथवा 'हिरण्यगर्भ' का ही अपर नाम है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रागैतिहासिक काल में योग की विभिन्न पद्धतियाँ साधना रूप में प्रचलित थीं। अतः भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिकों ने अपने-अपने मतानुसार अपने इष्टदेव को योग का आद्य प्रवर्तक मान लिया। प्राचीन काल में किसी भी विद्या का ग्रहण, धारण एवं पठन-पाठन गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा होता था इसलिए ऋषि-परम्परा द्वारा ही इसका प्रचार हुआ। लेखन परम्परा का अभाव होने से अन्य विद्याओं के समान योगविद्या भी शास्त्रबद्ध न हो सकी। परिणामस्वरूप आज इसका क्रमिक व प्रामाणिक इतिहास अनुपलब्ध है। कहा जाता है कि हिरण्यगर्भ ने योग विषयक एक ग्रन्थ की रचना की थी।१४ परन्तु उक्त ग्रन्थ के अनुपलब्ध होने से इस विषय में कोई प्रमाण प्रस्तुत करना संभव नहीं है। १. हिरण्यगर्भः योगस्य वक्ता नान्य पुरातनः | - महाभारत, २/३४६/६५ २. वही, १२/३४२/६६ ३. ऋग्वेदसंहिता, १०/१२१/१ महापुराण, १२/१५ श्रीमद्भागवतपुराण, ५/३/२० वही. ५/४/३ वही, ५/६:१३ आदिपुराण २४/३३ Jainism the oldest living Religion, p. 49-50. 'पाशुपत योग का प्रारम्भिक इतिहास', कल्याण (योगांक), पृ० २३७ ११. वही, कल्याण (योगांक). पृ०२३७ १२. शर्मा, सुरेन्द्र कुमार, हठयोग - एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं हठयोगप्रदीपिका, पृ० १७ १३. श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै येनोपदिष्टा हठयोगविद्या। - हठयोगप्रदीपिका, १/१ १४. नैरञ्जन, श्री मौक्तिनाथ, “पातञ्जलयोगदर्शन की प्राचीनता' कल्याण, (योगांक) पृ० २५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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