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आध्यात्मिक विकासक्रम
१०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान'
दसवें गुणस्थान में यद्यपि साधक लोभ नामक कषाय का उपशमन करता है तथापि उसमें सूक्ष्म लोभ की लालिमा ( सूक्ष्म आभा) बची रहती है, इसलिए इसका नाम 'सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान' रखा गया है। इस गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ रूप कषाय का ही उदय होता है, अन्य कषायों का उपशम या क्षय हो जाता है । २ प्रकृत गुणस्थान के सम्बन्ध में जैनाचार्यों ने लोभ का अर्थ किया है आत्मा की शरीर के साथ सूक्ष्म आसक्ति । कुछ आत्मा उपशमश्रेणी पर चढ़कर इस गुणस्थान में पहुँचते हैं तो कुछ क्षपकश्रेणी पर चढ़कर सीधे बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाते हैं।"
११. उपशान्तमोह (कषाय) गुणस्थान
क्षपकश्रेणी वाले जीव के लिए ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुँचना संभव नहीं होता। केवल उपशमश्रेणी वाले जीव ही इस गुणस्थान में पहुँच पाते हैं अर्थात् जो साधक क्रोधादि कषायों का क्षय करने की अपेक्षा केवल उपशान्त करता हुआ ही आगे बढ़ता है, वह क्रमशः चारित्रशुद्धि करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है। इस गुणस्थान में रहने वाला जीव आगे उन्नति नहीं करता। वह अन्तर्मुहूर्त (उत्कृष्टतया और जघन्यतया एकसमय) के लिए मोहनीयकर्म को उपशान्त कर वीतराग अवस्था प्राप्त कर लेता है। किन्तु उस अवधि के समाप्त होते ही वह पुनः प्रभाव में आ जाता है। फलतः आत्मा के पतन का मार्ग पुनः प्रशस्त हो जाता है। इस गुणस्थान से पतित होकर आत्मा कभी-कभी सबसे निम्न भूमिका प्रथम गुणस्थान तक भी पहुँच जाता है। इसलिए इसे अधःपतन का स्थान कहा गया है। इस गुणस्थान में स्थित जीव पुनः अपने दुगुने प्रयास द्वारा कषायों को उपशान्त अथवा क्षीण करता हुआ अन्त में क्षपकश्रेणी पर चढ़कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
१२. क्षीणकषाय गुणस्थान
बारहवें गुणस्थान में जीव मोहनीयकर्म को सर्वथा क्षीण कर देता है। प्राचीन जैन ग्रन्थों में क्षपकश्रेणी वाला साधक ग्यारहवें गुणस्थान में गए बिना सीधे दसवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। इस गुणस्थान में पहुचकर जीव कभी पतन को प्राप्त नहीं करता, अपितु अन्तर्मुहूर्त तक इसी अवस्था में स्थिर रहकर नियम से तेरहवें गुणस्थान में चला जाता है।" इस गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं क्योंकि इस अवस्था तक उनका कर्मों के साथ सम्बन्ध बना रहता है। इसलिए इस अवस्था को 'क्षीणकषाय छंद्मस्थ" या 'क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ १२ गुणस्थान भी कहा जाता है।
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षट्खण्डागम, १/१/१८: गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), ५८- ६०: गुणस्थानक्रमारोह, ७२: प्राकृतपञ्चसंग्रह, १/२२-२३: बृहद्रव्यसंग्रह, टीका, १३ पृ० ४३: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/१६
Studies in Jain Philosophy, p. 278; Jain Ethics, p. 216; जैन आचार, पृ० ३६
Studies in Jain Philosophy, p. 278
दर्शन और चिन्तन, पृ० २७४
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षट्खण्डागम. १/१/१६ गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), ६१; गुणस्थानक्रमारोह, ७३; प्राकृतपञ्चसंग्रह, १/२४: बृहद्रव्यसंग्रह, टीका, १३ पृ० ४३: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/१६
भावसंग्रह, ६५५: धवला, पुस्तक १, पृ० १०६
दर्शन और चिन्तन, पृ० २७५
वही, पृ० २७४
षट्खण्डागम, १/१/२० : गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) ६२ : गुणस्थानक्रमारोह, ७४; प्राकृतपञ्चसंग्रह, १/२५: बृहद्रव्यसंग्रह, टीका, १३ पृ० ४३: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/१६
Jain Ethics, p. 217
पञ्चसंग्रह, १/२७-३०: तत्त्वार्थसार, २/२६
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१२. जैनसिद्धान्त, पृ० ८३
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