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आध्यात्मिक विकासक्रम
यशोविजय ने आगमों के प्रति श्रद्धा, विनय, और सद्गुण' धर्मध्यान के इन तीन मुख्य लक्षणों का निर्देश किया है।
फल
'धर्मध्यान' के उक्त प्रभेदों का अभ्यास करने से योगी के ध्यान में स्थिरता आती है और उसका चित्त एक ही ध्येय में तल्लीन हो जाता है। ऐसी अवस्था में जीव को इन्द्रियों से अगम्य आत्मिक सुख का अनुभव होता है | शरीरादि परिग्रहों तथा इन्द्रियादि विषयों से उसकी निवृत्ति हो जाती है। एकाग्रता को धारण कर वह आत्मा में ही अवस्थित हो जाता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि धर्मध्यान का अभ्यास करने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, अपितु महासुकृत पुंज की परम्परा बढ़ाने वाले स्वर्ग की प्राप्ति होती है। धर्मध्यान के साधक स्वर्ग के दिव्य सुखों को भोगने के पश्चात् स्वर्गपटल से च्युत होकर पुनः पृथ्वी पर मनुष्य रूप में जन्म लेते हैं और वहाँ चरम शरीरी महापुरुषों / तीर्थंकरों की विभूति को प्राप्त करके विविध प्रकार के भोगों को अनासक्ति पूर्वक भोगते हैं। तत्पश्चात् विवेक का आश्रय लेकर, संसार के समस्त भोगों से विरक्त होकर वे उत्तम ध्यान (शुक्लध्यान) द्वारा समस्त कर्मों का विनाश कर शाश्वत पद मोक्ष को प्राप्त करते हैं। संक्षेप में धर्मध्यान के अभ्यास से 'शुक्ल ध्यान' रूप उत्तमध्यान की योग्यता प्राप्त होती है जो मोक्ष-प्राप्ति का मूल हेतु है ।
४. शुक्लध्यान
धर्मध्यान में चित्तशुद्धि का प्रारम्भिक अभ्यास पूर्ण होता है। शुक्लध्यान के अन्तर्गत उक्त अभ्यास में अधिक परिपक्वता आती है और क्रमशः चित्त शांत व निष्प्रकम्प हो जाता है तथा अन्त में चित्तवृत्ति का पूर्णतः निरोध, पूर्ण संवर की स्थिति, जैन योग की परिभाषा में शुक्लध्यान तथा पातञ्जलयोगानुसार धर्ममेघ समाधि की प्राप्ति होती है। यह ध्यान की सर्वोत्कृष्ट एवं वासनाहीन स्थिति है। इसलिए धीर योगी आत्यन्तिक शुद्धि को प्राप्त करके धर्मध्यान का अतिक्रमण करता हुआ शुक्लध्यान का अभ्यास प्रारम्भ करता है। धर्मध्यान का अभ्यास करते-करते जब आत्मा निर्मल हो जाती है, तब उस साधक की एकाग्रता या आत्यन्तिक स्थिरता को 'शुक्लध्यान' कहते हैं। आ० हरिभद्र ने शुक्लध्यान का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ किया है 'शोक-निवर्तक और एकाग्रचित्त निरोध' अर्थात् जिससे आत्मगत शोक सर्वथा निवृत्त हो जाए, ऐसा एकाग्रचित्तनिरोध शुक्लध्यान है।" आ० शुभचन्द्र के अनुसार जो चित्तक्रिया से रहित, इन्द्रियों से अतीत और ध्यान-धारण से विहीन होकर अर्न्तमुख हो जाता है अर्थात् समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित होकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाए उसे 'शुक्लध्यान' कहा जाना चाहिए।" यह ध्यान निर्मलता तथा कषायों के क्षय अथवा उपशम हो जान के कारण चूंकि वैडूर्य मणि के समान अतिशय निर्मल व स्थिर होता है, इसलिए इसे 'शुक्लध्यान कहा गया है। आ० हेमचन्द्र ने शुक्लध्यान के लिए उपयुक्त सामग्री प्राप्त न होने
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अध्यात्मसार, ५/१६/७१
ज्ञानार्णव ३८ / १३: योगशास्त्र, १०/१७ पर स्वो० वृ०
ज्ञानार्णव, ३८/६
वही, ३८ / १४ - २२ योगशास्त्र, १० / १८-२२: अध्यात्मसार, ५/१६/७२
ज्ञानार्णव, ३८ / २३ - २५. योगशास्त्र, १० / २३-२५
अथ धर्ममतिक्रान्तः शुद्धिं चात्यन्तिकीं श्रितः ।
ध्यातुमारभते धीरः शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् ।। - ज्ञानार्णव, ३६ / ३
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शुचं कलमयतीति शुक्लं शोकं ग्लपयतीत्यर्थः । ध्यानशतक, गा० १ पर हरिभद्रटीका
ज्ञानार्णव ३६ / ४ (१)
ज्ञानार्णव ३६ / ४ (२). ५
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