Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 272
________________ 254 बुद्धिऋद्धि' बुद्धि नाम अवगम या ज्ञानं का है। उसको विषय करने वाली ऋद्धियाँ १८ प्रकार की होती हैं। १. केवलज्ञान' २. अवधिज्ञान* 3. मनः पर्याय ४. बीजबुद्धि ५. कोष्ठकबुद्धि ६. पदानुसारी ७. संभिन्नस्रोत ८. दूरस्वादित्व" (दूरास्वादन) ६. दूरदर्शित्व " १०. दूरस्पर्शत्व ११. दूरघ्राणत्व" १२. दूरश्रवणत्व ४ १. २. 3. ४. ५. ६. ७. ८. पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन चार घातिया कर्मों अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अन्तराय कर्मों के क्षीण होने पर पूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति । अवधि ज्ञान रूपी (स्पर्श, गन्ध, रस, वर्ण युक्त) पदार्थों के त्रैकालिक पदार्थों को जानने की क्षमता । संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को सामान्य रूप से जानने की सामर्थ्य । सुने हुए ग्रंथ के एक बीज पद को जानने से ही अनेक पदों और उनके अर्थों को जानने की क्षमता । गुरु-मुख से एक ही बात स्मृत, श्रवित एवं पठित ज्ञान को अक्षरशः ग्रहण कर स्मृति में सुरक्षित रखने की क्षमता । एक पद के आधार पर पूरे श्लोक या सूत्र को जान लेने की क्षमता । प्रत्येक अंग से सुनने की क्षमता तथा सभी इन्द्रियों द्वारा एक दूसरे का कार्य करने की सामर्थ्य | जिहा इन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों के विविध रसों को जान लेने की क्षमता ! चक्षुरिन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों में स्थित द्रव्यों को देखने की सामर्थ्य | Jain Education International स्पर्शनेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों तक आठ प्रकार के (दूरस्थ) स्पर्शों को जान लेने की क्षमता । घ्राणेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों तक बहुत प्रकार के गंधों को ग्रहण करने की योग्यता । श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजन पर्यन्त तक स्थित मनुष्यों तिर्यञ्चों के अक्षर-अनक्षर रूप शब्दों को सुनने की सामर्थ्य | तिलोयपण्णत्ति, ४ / ६६६-६७ : तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०१ बुद्धिरवगमो ज्ञानं तद्विषया अष्टादशविधा ऋद्धयः । - तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०१ योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८, पृ० २१ योगशास्त्र १/६ वही, १/६ तिलोयपण्णत्ति, ४ / ९७५-६७७ : तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०१: धवला, पुस्तक ६, पृ० ५६ ५७ ५६: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति, ३/३६ : योगशास्त्र, स्वो० वृ० १ / ८. पृ० ३८ तिलोयपण्णत्ति, ४/६७८-६७६: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०१३ २६. धवला, पुस्तक ६, पृ० ५३ ५४: तत्त्वार्थसूत्र श्रुतसागरीय वृत्ति, ३/३६: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८ पृ० ३८: प्रवचनसारोद्धार, १५०२ तिलोयपण्णत्ति, ४/६८०-६८३: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०१ : २८, धवला, पुस्तक ६, पृ० ६०: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८. पृ० ३८: आवश्यकसूत्र, मलयगिरिवृत्ति, ७५, पृ० ८०: प्रवचनसारोद्धार, १५०३ ६ तिलोयपण्णत्ति, ४ / ६६४-६८६: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०१ ३० धवला, पुस्तक ६, पृ० ६१: योगशास्त्र, १ / ८ १०. तिलोयपण्णत्ति, ४ / ६८७-८८: तत्त्वार्थराजवार्तिक ३/३६/३/२०२ ११. तिलोयपण्णत्ति, ४ / ६६६-६७ १२. तिलोयपण्णत्ति, ४ / ६८६-६० तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०२ १३. तिलोयपण्णत्ति, ४ / ६६१-६२ १४. तिलोयपण्णत्ति, ४ / ६६३-६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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