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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
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लघिमा' शरीर को वायु से भी हल्का बनाने की क्षमता।' गरिमा शरीर को वज से भी अधिक भारी बनाना। प्राप्ति भूमि पर खड़े रहकर अंगुली से मेरु, सूर्य, चन्द्रादि को छू लेने की सामर्थ्य । प्राक्राम्य' जल के समान पृथ्वी पर भी उन्मज्जन - निमज्जन क्रिया करना और पक्षी
के समान जल पर भी गमन करना। ईशित्व समस्त जगत पर प्रभुत्व प्राप्त करना। वशित्व तप द्वारा समस्त जीवों को वश में करना। अप्रतिघात शैल, शिला या वृक्षादि के मध्य में होकर आकाश के समान गमन करने की
सामर्थ्य। १०. अन्तर्धान अदृश्य होने की सामर्थ्य |
११. कामरूपित्व' एक साथ अनेक का निर्माण करने की सामर्थ्य । क्रियाऋद्धि
चारण और आकाशगामित्व भेद से क्रियाऋद्धि दो प्रकार की मानी गई है -- (क) चारणऋद्धि चारण, चारित्र, संयम, पापक्रियानिरोध - इनका एक ही अर्थ है। इसमें जो
कुशल अर्थात् निपुण हैं वे चारण कहलाते हैं। चारण ऋद्धि के जलचारण, जंघाचारण, फलचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, अग्नि-शिखाचारण, मकडीतन्तचारण आदि पुनः कई प्रभेद किये गये हैं।१३।।
स्वो वृ०८४ तत्वार्थ सूत्र, श्रुतमामवला, पुस्तक ६.
शास्त्र,
तिलोयपण्णत्ति, ४/१०२७: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३; तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८, पृ०४० ज्ञानार्णव. टी० १६/६. योगशतक. ८४: स्वो० वृ० तिलोयपण्णत्ति, ४/१०२७: तत्त्वार्थराजवार्तिक. ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८. पृ०४० ज्ञानार्णव, टी०१६/६, योगशतक, स्वो वृ०८४ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०२८: तत्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३; तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६, योगशास्त्र, स्वो० वृ०
१/८, पृ० ४० प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, १५०५: ज्ञानार्णव, टी० १६/६; योगशतक. ८४; धवला, पुस्तक ६, पृ०७५ ४. तिलोयपण्णत्ति, ४/१०२६: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र. श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: योगशास्त्र, स्वो० वृ०
१/८, पृ० ४० प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, १५०५ ज्ञानार्णव, टी० १६/६. २७/६. ३५/२६. ६०; योगशतक, ८४: स्वो० वृ० धवला, पुस्तक ६. पृ०७६. ७६ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०३०; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८. पृ० ४०; प्रवचनसारोद्धार वृत्ति १५०५: ज्ञानार्णव, टी० १६/६; योगशतक ८४: स्वो० वृ० धवला. पुस्तक ६, पृ०७६ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०३०; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृति ३/३६: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८, पृ० ४०; प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, १५०५: ज्ञानार्णव, टी० १६/६. : योगशतक, ८४: स्यो० वृ०. धवला. पुस्तक ६. पृ०६० तिलोयपण्णत्ति, ४/१०३१: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: योगशास्त्र.८४: स्वो० वृ०१/८, पृ०४०; प्रवचनसारोद्धारवृत्ति,१५०५ . तिलोयपण्णत्ति, ४/१०३२; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: योगशास्त्र. स्वो० वृ०१/८, पृ०४०; प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, १५०५ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०३२; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीय वृत्ति ३/३६; ये गशास्त्र, स्वो० वृ० १/८, पृ०४०: धवला, पुस्तक ६. पृ०७६
तिलोयपण्णत्ति, ४/१०३३: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०२ ११. तिलोयपण्णत्ति ४/१०३५, ४८ तत्त्वार्थराजवार्तिक. ३/३६/३/२०२: धवला, पुस्तक ६. पृ० ८०.८८: विशेषावश्यकभाष्य, १५०७ १२. योगशास्त्र. स्वो० वृ०१/६ १३. तिलोयपण्णत्ति, ४/१०३४. ३५ ४८; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०२: धवला. पुस्तक ६. पृ० ७८, ८०.:
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