Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 277
________________ सिद्धि-विमर्श 259 १. मनोबल' २. वचनबल' ३. कायबल' अन्तर्मुहूर्त में सम्पूर्ण श्रुत को चिन्तन करने की सामर्थ्य । अन्तर्मुहूर्त में सम्पूर्ण श्रुत को पाठ करने की शक्ति । महीनों तक एक ही आसन में बैठे या खड़े रहने की क्षमता अथवा अंगुली के अग्रभाग से तीनों लोकों को उठाकर दूसरी जगह रखने की सामर्थ्य का होना। औषधऋद्धि __ औषधऋद्धि आठ प्रकार की है। जिन योगियों-मुनियों के कफ, श्लेष्म, विष्ठा, कान का मैल, दांत का मैल, आंख और जीभ का मैल, हाथ आदि का स्पर्श, विष्ठा, मूत्र, केश, नख आदि कथित या अकथित सभी पदार्थ औषध रूप बन जाते हैं, और उनसे प्राणियों के असाध्य रोग भी नष्ट हो जाते हैं, वे औषधऋद्धि के धारी होते हैं। ये ऋद्धियाँ आठ प्रकार की होती हैं - १. आमीषधि २. श्वेलौषधि ३. जल्लौषधि ४. मलौषधि योगी के हाथ-पैर आदि के स्पर्शमात्र से प्राणी का नीरोग हो जाना। योगी की लार, कफ, अक्षिमल और नासिकामल से जीवों के रोगों का विनाश। योगी के स्वेद, पसीने आदि से रोगों का नाश। योगी के जिहवा, ओष्ठ, दांत, श्रोत्रादि के मल से जीवों के समस्त रोगों का नष्ट होना। योगी के मंत्र, विष्ठा आदि से जीवों के भयानक रोगों का नाश। योगी के स्पर्श किये हुए जल व वायु तथा रोम और नख आदि से व्याधि का निराकरण। योगी के वचनमात्र से तिक्तादि रस व विष से युक्त विविध प्रकार के अन्न का निर्विष होना। आस्यनिर्विष१२ मुनि के वचन के श्रवणमात्र से ही व्याधियुक्त मनुष्य का स्वस्थ हो जाना। विप्रौषधि ६. सर्वौषधि ७. मुखनिर्विष ॐ १. तिलोयपण्णति, ४/१०६१-६२; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३; तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६; धवला, पुस्तक ६, पृ०६८: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८, पृ० ३८-३६ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०६३-६४: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३; तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: धवला, पुस्तक ६, पृ०६८-६६: योगशास्त्र, स्वो० वृ०१/८. पृ०३६ ३. तिलोयपण्णत्ति, ४/१०६५-६६; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३; तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६; धवला, पुस्तक ६, पृ० ६६: योगशास्त्र, स्वो० वृ०१/८, पृ०३६ तिलोयपण्णत्ति. ४/१०६७: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: प्रवचनसारोद्धार, १४६२ ।। तिलोयपण्णति. ४/१०६८; तत्त्वार्थराजवार्तिक. ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: धवला, पुस्तक ६. पृ० ६५-६६: योगशास्त्र, स्वो००१/८, पृ०३६: आवश्यकसूत्र, हरिभद्रवृत्ति व मलयगिरिवृत्ति, पृ०६६: प्रवचनसारोद्धार, १४६६ तिलोयपण्णति, ४/१०६६: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: धवला, पुस्तक ६. पृ०६६ तिलोयपण्णति. ४/१०७०: तत्त्वार्थराजवार्तिक. ३/३६/३/२०३; धवला. पुस्तक ६. पृ०६६ तिलोयपण्णा, ४/१०७१: तत्त्वार्थराजवार्तिक. ३/३६/३/२०३ तिलोयपण्णारा, ४/१०७२; तत्त्वार्थराजवार्तिक. ३/३६/३/२०३: तिलोयपाण्णति. ४/१०७३: तत्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३; धवला, पुस्तक ६, पृ०६७ ११. तिलोयपण्णारा.४/१०७४: तत्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३ १२. तिलोयपण्णति, ४/१०७४: तत्वार्थराजवार्तिक. ३/३६/३/२०३ ॐ Jut Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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