Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 278
________________ 260 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन ८. दृष्टिनिर्विष योगी द्वारा रोग और विष से युक्त जीव को देखने मात्र से उसका नीरोग हो जाना। रसऋद्धि इसके ६ भेद हैं - १. आशीविष योगी द्वारा किसी प्राणी को 'मर जाओ' ऐसा कहने पर उस प्राणी की तत्क्षण ही मृत्यु हो जाना। २. दृष्टिविष किसी क्रुद्ध मुनि के द्वारा किसी प्राणी के देखे जाने पर उस प्राणी की उसी समय मृत्यु हो जाना। ३. क्षीरासावी योगी के हाथ में आए हुए नीरस भोजन एवं वाणी का झीर के समान मधुर एवं सन्तोषजनक हो जाना। ४. मध्वासावी योगी के हाथ में आए हुए नीरस भोजन एवं वाणी का मधु के समान मधुर हो जाना अथवा योगी के वचनों का मधु-शक्कर आदि मधुर द्रव्य के समान हो जाना। ५. सर्पिरास्रावी योगी के हस्तगत नीरस भोजन एवं वाणी का घृत के समान स्निग्ध होना। ६. अमृतस्रावी अथवा अमृतास्रवी योगी के हस्तगत नीरस भोजन एवं वाणी का अमृत के समान विशुद्ध एवं निर्मल हो जाना। क्षेत्रऋद्धि क्षेत्रऋद्धि के दो भेद हैं - १. अक्षीणमहानसऋद्धि और २. अक्षीणमहालयऋद्धि। १. तिलोयपण्णत्ति, ४/१०७६; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०७७: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०७८ तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३ धवला पुस्तक, ६, पृ०८५ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०७६; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३; धवला पुस्तक, ६. पृ०८६ तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति, ३/३६ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०८०-८१; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०४; तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीय वृत्ति ३/३६ धवला. पुस्तक ६. पृ० ६६; योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८, पृ० ३६: आवश्यकसूत्र, मलयगिरि वृत्ति पृ०७५ तिलोयपण्णत्ति ४/१०८२-८३, तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०४; तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६ योगशास्त्र. स्वो० वृ०१/८, पृ०३६, आवश्यकसूत्र, मलयगिरिवृत्ति पृ०७५, ८० तिलोयपण्णत्ति, ४/१०८६; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०४; तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६; योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/६, पृ० ३६, धवला, पुस्तक ६, पृ० १०० ८. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०४; धवला, पुस्तक ६, पृ० १०१, तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६; योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८, पृ० ३६ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०८४-८५ १०. तिल्लोयपण्णत्ती, ४/१०८८; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०४; तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६, योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८, पृ०३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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