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सिद्धि-विमर्श
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१. अक्षीणमहानस' और
अक्षीणमहानसिक किसी मुनि या साधु द्वारा किसी के घर में भोजन किये जाने पर भिक्षा
या भोजन की कमी न होना। २. अक्षीणमहालय किसी मुनि या साधु द्वारा किसी मन्दिर में निवास करने पर उस स्थान
में समस्त देव, मनुष्य और तिर्यंचों को बाधारहित निवास करने की
शक्ति प्राप्त होना। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पातञ्जल एवं जैन-परम्परा में वर्णित सिद्धियों में पूर्ण साम्य है केवल उनके नामों, संख्या एवं वर्णन-शैली में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। पातञ्जलयोग परम्परा की अपेक्षा जैनपरम्परागत सिद्धि-वर्णन में व्यापकता एवं स्पष्टीकरण की दृष्टि से वैशिष्ट्य अवश्य प्रतीत होता है। जैनपरम्परा की एक अन्य विशेषता उसका समन्वयवादी दृष्टिकोण रहा है। इसीलिए आ० हरिभद्रादि प्रसिद्ध जैन मनीषियों ने पातञ्जल एवं जैन दोनों योग परम्पराओं में प्राप्त सिद्धियों का स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है। आ० हरिभद्र ने तो स्पष्ट रूप से पतञ्जलि के यम-नियमादि योगांगों से प्राप्त रत्नादि, वैदिक एवं हठयोगादि अन्य परम्पराओं में वर्णित अणिमादि तथा जैन-परम्परागत 'आमोसहि' आदि सिद्धियों की ओर संकेत करते हुए तीनों परम्पराओं में साम्य दिखाने का प्रयास किया है। अणिमादि सिद्धियाँ योग की विशिष्ट भूमिका में प्राप्त होने से सभी परम्पराओं में मान्य हैं। इसलिए आचार्य हरिभद्र, आचार्य शुभचन्द्र, आचार्य हेमचन्द्र तथा उपाध्याय यशोविजय आदि विद्वानों ने भी उनका उल्लेख किया है। । उक्त आचार्यों ने अन्यत्र भी पातञ्जलयोगसूत्र सम्मत सिद्धियों का वर्णन किया है। यथा आ० शुभचन्द्र द्वारा अहिंसा के प्रभाव से योगी के सान्निध्य में आने वाले क्रूर प्राणियों के वैरभाव त्याग करने का उल्लेख पातञ्जलयोगसूत्र से मिलता है।१४ इसी प्रकार आ० हेमचन्द्र एवं उपा० यशोविजय द्वारा निरूपित पवनजय से प्राप्त सिद्धियाँ पातञ्जलयोग से प्रभावित प्रतीत होती हैं।१५
१. तिलोयपण्णत्ति. ४/१०६६-६०; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०४; धवला, पुस्तक ६, पृ० १०१-१०२; आवश्यकसूत्र, मलयगिरि
वृत्ति ७५, पृ० ८०: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६; योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८, पृ० ३६ प्रवचनसारोद्धार, १५०४ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०६१; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०४; तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति, ३/३६; योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८. पृ० ३६
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्। - पातञ्जलयोगसूत्र, २/३७ ५. भागवतपुराण, ११/१५/३-५; योगशिखोपनिषद, ५/५१, मण्डलब्राह्मण, ३०३/४. पातञ्जलयोगसूत्र, ३/४४, ४५, तिलोयपण्णत्ति,
४/१०२४-२५ तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३. विशेषावश्यकभाष्य, १५०६-१५०६
प्रवचनसारोद्धार, १४६२-१५०८, विशेषावश्यकभाष्य, १०२४-२५ ७. जोगाणभावओ चिय पायं न य सोहणस्स विय लाभो।
लद्धीण वि सम्पत्ती इमस्स जं वन्निया समए।। रयणाई लद्धीओ अणिमाईयाओ तह चित्ताओ। आमोसहाझ्याओ तहा तहा जोगवुड्ढीए।। - योगशतक, ८३, ८४ पातञ्जलयोगसूत्र, ३/४४, ४५; भागवतपुराण, ११/१५/३-५, तिलोयपण्णत्ति, ४/१०२४-२५, तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३ योगशतक ८४ तथा स्वो० वृ०
ज्ञानार्णव, १६/६. २७/६.३५/२६.६० ११. योगशतक स्यो० वृ०१/८, पृ० ३७ १२. द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, २६/१५ एवं टीका १३. ज्ञानार्णव, २२/२२ १४. पातञ्जलयोगसूत्र, २/३५ १५. योगशतक. ५/२४; द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २६/१५ एवं स्वो० वृ० तुलना - पातञ्जलयोगसूत्र ३/३६
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