Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 273
________________ सिद्धि-विमर्श 255 १३. दशपूर्वित्व' १४. चौदहपूर्वित्व' १५. अष्टांगमहानिमित्त १६. प्रज्ञाश्रमण अथवा प्राज्ञश्रमण मुनियों के दशपूर्व के पढ़ने में ५०० महाविद्याओं और ७०० लघुविद्याओं के देवता आकर आज्ञा मांगते हैं। उस समय जो मुनि जितेन्द्रिय होकर उन विद्याओं की इच्छा नहीं करते वे विद्याधर श्रमण' इस पर्याय नाम से भुवन में प्रसिद्ध होते हुए अभिन्न दशपूर्वी कहलाते हैं। उन मुनियों की बुद्धि दशपूर्वी जानी जाती है। सम्पूर्ण श्रुत अर्थात् चौदह पूर्वो में पारंगतता। नभ, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, चिह्न और स्वप्न - इन आठ भेदों सहित निमित्त ज्ञान में कुशलता प्राप्त होना। अध्ययन के बिना ही चौदह पूर्वो में से अतिसूक्ष्म विषय का निरूपण करने में कुशलता। यह ऋद्धि औत्पत्तिकी, पारणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा भेद से चार प्रकार की होती है। ___ इनमें से पूर्व भव में किए गये श्रुत के विनय से उत्पन्न होने वाली औत्पत्तिकी, निज-निज जाति में उत्पन्न हई पारिणामिकी, द्वादशांग श्रुत के योग्य विनय से उत्पन्न होने वाली वैनयिकी और उपदेश के बिना ही विशेष तप की प्राप्ति से 3 चतर्थ कर्मजा प्रज्ञाश्रमणऋद्धि कहलाती है। गुरु के उपदेश के बिना ही कर्मों के उपशम से सम्यग्ज्ञान और तप के विषय में प्रगति। शक्रादि के पक्ष को भी बहुत वाद से निरुत्तर कर देना और पर के द्रव्यों की गवेषणा करना। १७. प्रत्येकबुद्धि" १८. वादित्व विक्रियाऋद्धिा या वैक्रियऋद्धि१० शरीर को छोटा, बड़ा, भारी, हल्का आदि करने की क्षमता। यह ११ प्रकार की मानी गई है :१. अणिमा" शरीर को अणु के समान छोटा बनाने की क्षमता। २. महिमारे शरीर को मेरु के बराबर बड़ा बनाने की सामर्थ्य। *s snet १. तिलोयपण्णत्ति,४/६६८-१०००, तत्वार्थराजवार्तिक.३/३६/३/२०२: धवला, पुस्तक ६.पृ०६६ तिलोयपण्णत्ति. ४/१००१: तत्यार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०२; धवला. पुस्तक ६. पृ०७० तिलोयपण्णत्ति ४/१००२: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: धवला, पुस्तक ६. पृ०७२ तिलोयपण्णत्ति,४/१०१७-१६: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०२: धवला. पुस्तक ६, पृ०८१ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०१६; योगशास्त्र, स्वो० वृ०१/८. पृ० ३७-३८ तिलोयपण्णत्ति,४/१०१६-२१: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०२: धवला. पुस्तक ६, पृ०८१-८२ तिलोयपण्णत्ति,४/१०२२; तत्त्वार्थराजयार्तिक, ३/३६/३/२०२ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०२३: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०२/२५ तिलोयपण्णत्ति. ४/१०२४-२५ तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०२/३३: तत्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६ योगशास्त्र, स्वो० वृ०१/८, पृ० ३७ तिलोयपण्णति, ४/१०२६: तत्त्वार्थराजवार्तिक. ३/३६/३/२०२/३४: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति. ३/३६: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८. पृ०३७: प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, १४४५: ज्ञानार्णव, १६/६, २७/६, ३५/२६. ६०; योगशतक,८४; धवला, पुस्तक ६, पृ०७५ १२. तिलोयपण्णत्ति, ४/१०२७: तत्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६; योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/८, पृ० १० ज्ञानार्णव. टी० १६/६ : योगशतक. ८४: स्वो० वृ० धवला. पुस्तक ६. पृ०७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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