Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 256
________________ 238 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन के कारण वर्तमानकाल के साधकों के लिए उसका अभ्यास करना अतिदुष्कर बताया है तथापि शुक्लध्यान की परम्परा का विच्छेद न हो, क्योंकि अविच्छिन्न-परम्परा से यदा-कदा कोई व्यक्ति थोडी बहुत मात्रा में लाभान्वित हो सकता है, इसलिए उसका विवेचन करना भी आवश्यक समझा।' शुक्लध्यान के भेद शुक्लध्यान के चार भेद बताए गए हैं - १. पृथक्त्ववितर्क-सविचार, २. एकत्ववितर्क-अविचार, ३. सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती और ४. समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति या व्युपरतक्रियानिवृत्ति। इनमें से पहले दो प्रकार सालम्बन ध्यान कहलाते हैं क्योंकि इनमें श्रुतज्ञान और योग का आलम्बन होता है, परन्तु बाह्य आलम्बनों की कोई आवश्यकता नहीं रहती। शेष दो ध्यान निरालम्बन कहलाते हैं क्योंकि उनमें किसी भी प्रकार के आलम्बन नहीं होते। (१) पृथक्त्ववितर्क-सविचार ___ पूर्वगत श्रुत के अनुसार विविध नयों से पदार्थों की पर्यायों का भिन्न-भिन्न रूप में चिन्तन करना तथा ध्येय वस्तु शब्द, अर्थ और योग में संक्रमण करना 'पृथक्त्ववितर्क-सविचार' नामक प्रथम शुक्लध्यान है। पृथक्त्व का अर्थ है - भेद। इस प्रथम शुक्लध्यान में साधक पूर्वगत श्रुतानुसार एक द्रव्य का विविध नयों के द्वारा भेद चिन्तन करता है, इसलिए इसे पृथक्त्व कहा गया है। वितर्क का अर्थ है - श्रुतज्ञान । यह चिन्तन श्रुतानुसारी होता है, अतएव इसे वितर्क कहते हैं। विचार से तात्पर्य है - अर्थ, व्यञ्जन और योग का संक्रमण। इस ध्यान में साधक शब्द से अर्थ पर, अर्थ से शब्द पर, एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य पर और एक पर्याय से दूसरे पर्याय पर अथवा द्रव्य से पर्याय पर, पर्याय से द्रव्य पर या एक व्यञ्जन (श्रुतवचन) को छोड़कर दूसरे व्यञ्जन अथवा एक योग से दूसरे योग पर संक्रमित होता रहता है इसलिए इसे सविचार कहते हैं। इसप्रकार ध्यान की भेद-प्रधान (पृथक्त्व) और संक्रमणशील स्थिति के कारण ही इस प्रथम ध्यान को 'पृथक्त्ववितर्क-सविचार' नाम दिया गया है। (२) एकत्वविर्तक-अविचार पूर्वश्रुत का आलम्बन लेकर जब एक द्रव्य के किसी एक पर्याय का अभेद दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और मन-वचन-कायादि तीन योगों में से किसी एक योग में ही दृढ़ रहकर शब्द या अर्थ में से किसी एक का ही चिन्तन किया जाता है तब शुक्लध्यान की वह स्थिति ‘एकत्ववितर्क-अविचार' कहलाती है। इसको श्रत का अवलम्बन होने से 'वितर्क, अभेद का चिन्तन होने से 'एकत्व' और योग एवं शब्दार्थ का संक्रमण न होने से 'अविचार' कहते हैं। इस ध्यान में योगी मन को भिन्न-भिन्न इन्द्रिय विषयों से हटाकर किसी एक विषय में केन्द्रित कर लेता है। विषयों के अभाव में मन की चंचलता समाप्त हो जाती है। १. अनवच्छित्त्याम्नायः समागतोऽस्येति कीर्त्यतेऽस्माभिः । दुष्करमप्याधुनिकैः शुक्लध्यानं यथाशास्त्रम् ।।- योगशास्त्र, ११/४ स्थानांगसूत्र, ४/२४७; भगवतीसूत्र, २५/७; औपपातिकसूत्र, अधिकार, ३०; तत्त्वार्थसूत्र, ६/४१; ज्ञानार्णय, ३६/८, ६; योगशास्त्र,६/५: अध्यात्मसार,५/१६/७४-८० ज्ञानार्णव, ३६/१२-१६ (१-३); योगशास्त्र, ११/६.१५, १६: अध्यात्मसार, ५/१६/७४.७५ वितर्कः श्रुतम् |-तत्त्वार्थसूत्र, ६/४५ विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ।- वही, ६/४६ शब्दाच्छब्दानन्तरं यायाद्योगं योगान्तरादपि । सवीचारमिदं तस्मात् सवितर्क च लक्ष्यते ।। - ज्ञानार्णव, ३६/१६(२) ७. ज्ञानार्णव, ३६/१३: योगशास्त्र, ११/७.८ ॐ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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