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सिद्धि-विमर्श
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२०. संयम द्वारा बन्धन का कारण शिथिल होने से तथा प्रचार का ज्ञान होने से चित्त का पर
शरीर में प्रवेश संभव। संयम द्वारा उदान वायु के जीतने से जल, पंक एवं कण्टकादि से असंग एवं ऊर्ध्वगति की प्राप्ति। समान वायु के जय से योगी के शरीर का अग्नि के समान देदीप्यमान होना। श्रोत्र एवं आकाश के संबंध विषयक संयम से दिव्यश्रोत्र की प्राप्ति। शरीर एवं आकाश के संबंध विषयक संयम से तथा लघु-तुल की समापत्ति के द्वारा
साधक को आकाश-गमन की सिद्धि की प्राप्ति २५. (शरीर के) बाहर (चित्त की) अकल्पित वृत्ति महाविदेहा है, उस पर संयम करने से साधक
के चित्त में प्रकाश के आवरण का क्षय ।। । पृथ्वी आदि पंचभूतों की स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय तथा अर्थवत्त्व - इन पांच अवस्थाओं में संयम करने से भूतजय नामक सिद्धि की प्राप्ति तथा उसके परिणामस्वरूप अणिमादि ऐश्वर्य, कायसम्पत् एवं उन भूतों के धर्मों के अनभिघात रूप सामर्थ्य की प्राप्ति । इन्द्रियों की ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय, अर्थवत्त्व - इन पांच अवस्थाओं में संयम करने से इन्द्रियजय नामक सिद्धि की प्राप्ति। सत्त्वात्मक बुद्धि और पुरुष की भिन्नता का बोध 'विवेकख्याति' है। उस ख्याति मात्र में ही प्रतिष्ठित योगी को समस्त पदार्थों के अधिष्ठातृत्व तथा सर्वज्ञत्व की प्राप्ति। सत्त्वगुणात्मक विवेकख्याति के प्रति भी परवैराग्य हो जाने पर समस्त दोषों का बीज क्षीण हो जाने से कैवल्य की प्राप्ति । इसके अतिरिक्त क्षण एवं उसके क्रम विषयक संयम से भी विवेकजन्य सर्वज्ञातृत्व की प्राप्ति । परिणामस्वरूप अतीत तथा अनागतकालीन समस्त पदार्थों को उनके अशेष-विशेष रूप सहित जानने का सामर्थ्य-लाभ ।१४
इसप्रकार स्पष्ट है कि साधक योगी को साधना के परिणामस्वरूप नाना प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इनमें से कुछ तो साक्षात् समाधि अथवा मोक्ष की सहायक होती हैं तथा कुछ परम्परया समाधि की सहायक होती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ सिद्धियाँ यथावसर समाधि के मार्ग में परम्परया उपस्थित होती
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बन्धकारणशैथिल्यात्प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य परशरीरावेशः। - पातञ्जलयोगसूत्र, ३/३८
उदानजयाज्जलपङ्ककंटकादिष्वसङ्ग उत्क्रान्तिश्च।- वही, ३/३६ ३. समानजयाज्ज्वलनमा- वही,३/४०
श्रोत्राकाशयोः सम्बन्धसंयमाद् दिव्यं श्रोत्रम्.। - वही ३/४१ कायाकाशयोः सम्बन्धसंयमाल्लघुतूलसमापत्तेश्चाकाशगमनम्।- वही, ३/४२ बहिरकल्पिता वृत्तिर्महाविदेहा, ततः प्रकाशावरणक्षयः । - वही, ३/४३ स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद् भूतजयः। - वही, ३/४४ ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसंपत्तद्धर्मानभिधातश्च। - वही, ३/४५ ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्त्वसंयमादिन्द्रियजयः।- वही, ३/४७ सत्त्यपुरुषान्यताप्रत्ययो विवेकख्यातिः।- व्यासभाष्य, पृ० २६२
सत्त्यपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च।- पातञ्जलयोगसूत्र, ३/४६ १२. तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्। - वही, ३/५० । १३. क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्।- वही, ३/५२ १४. जातिलक्षणदेशैरन्यतानवच्छेदात्तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः। - वही, ३/५३
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