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आध्यात्मिक विकासक्रम
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करने की उन्हें कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। उपा० यशोविजय ने भी स्वरूपमात्र निर्भास ध्यान को ही 'समाधि' कहा है और समाधि को ध्यान का फल बताया है। प्राचीन जैनागम तथा आगमेतर साहित्य में निरूपित शुक्लध्यान योगसूत्र में वर्णित समाधि की प्रक्रिया से बहुत साम्य रखता है। जैसे - जैनदर्शन में प्ररूपित प्रथम शक्लध्यान (पृथक्त्वसवितर्क-सविचार) में द्रव्यपर्यायादि के ज्ञान एवं योग के संक्रमण युक्त चिन्तन को सवितर्क व सविचार कहा गया है, उसीप्रकार योगसूत्र में उल्लिखित सम्प्रज्ञातसमाधि में भी पूर्वापर के अनुसंधानपूर्वक शब्द व अर्थ के विकल्प से युक्त स्थूल व सूक्ष्म तत्त्वों का चिन्तन करने को सवितर्क व सविचार नाम से अभिहित किया गया है।
इसीप्रकार जैसे जैनदर्शन में द्वितीय शुक्लध्यान के निरूपण में शब्द, अर्थ और योग का संक्रमण न होने के कारण उसे अविचार शब्द से द्योतित किया गया है, उसीप्रकार योगदर्शन में तन्मात्रा और अन्तःकरण रूप विषय का आलम्बन लेने वाली चतुर्थ (निर्विचार) समाधि में भी देश, काल और धर्म के अवच्छेद से रहित धर्मी मात्र का प्रतिभास होने के कारण उसे निर्विचार की संज्ञा दी गई है। पातञ्जलयोगदर्शन में जो निर्बीज-समाधि की चर्चा की गई है वह प्रायः जैन-परम्परा में निरूपित शुक्लध्यान के अंतिम दो भेदों 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती' और 'समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति के समकक्ष है। उनमें भी मोह, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय - इन चार घातिकर्मों के पूर्णतया विनष्ट हो जाने पर ज्ञान-ज्ञेय आदि विकल्पों का अभाव हो जाता है। जैनमतानुसार ये दोनों ध्यान केवली को हुआ करते हैं और केवली को जड़, चेतन, स्थूल, सूक्ष्म, देशांतर, कालान्तर, व्यवहित, अव्यवहित सब पदार्थों का ज्ञान होता है। यही विशिष्टता योगसूत्र एवं उसके भाष्य में भी कही गई है। जिसप्रकार योगसूत्र के व्यास भाष्य में स्वरूप में स्थित जीव को शुद्ध, केवली व मुक्त कहा गया है, उसीप्रकार का वर्णन जैन-परम्परा में भी मिलता
___ आ० हरिभद्र एवं उपा० यशोविजय ने भी 'पृथक्त्वसविचार-सवितर्क' और 'एकत्ववितर्क-अविचार' इन दो शक्लध्यानों को पातञ्जलयोग सम्मत 'सम्प्रज्ञातसमाधि' तथा 'सक्ष्मक्रियाप्रतिपाती' और 'समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति' इन दो शुक्लध्यानों को योग की 'असम्प्रज्ञातसमाधि' के सदृश बताकर दोनों परम्पराओं में समन्वयात्मक दृष्टिकोण दर्शाने का प्रयास किया है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन-साधना-पद्धति में ध्यान से पृथक् समाधि अंग को स्वीकार करने की परम्परा प्रारम्भ में नहीं थी, और न ही जैन-परम्परागत ध्यान पातञ्जलयोगसूत्र से प्रभावित प्रतीत होता है। ऐसा भी नहीं है कि प्राचीन जैनसाहित्य में 'समाधि' शब्द का प्रयोग ही न हुआ हो। जैनागमों में प्रयुक्त 'समाधि' शब्द 'ध्यान' से निष्पन्न होने वाली आत्मस्थिति को नहीं, अपितु आचार-पद्धति को अभिव्यक्त करता है। समाधि को ध्यान से पृथक् अंग मानने की मान्यता उत्तरवर्तीकाल में प्रारम्भ हुई।
ॐज
१. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २४/२७ २. पातञ्जलयोगसूत्र, १/४६ एवं व्यासभाष्य ३. सस्मिन्निवृत्ते पुरुषः स्वरूपमात्रप्रतिष्ठतोऽतः शुद्धः केवलो मुक्तः इत्युच्यते इति। - व्यासभाष्य, पृ० १६०
ज्ञानार्णव, ३६/२४-२८, ५०-५३ समाधिरेष एवान्यैः सम्प्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यकप्रकर्षरूपेण वृत्त्यर्थज्ञानतस्तथा ।। असम्प्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्त्यादितत्स्वरूपानुवेधतः ।।- योगबिन्दु. ४१६, ४२१ तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचारकत्व वितर्काविचाराख्य शुक्लध्यानभेदवये सम्प्रज्ञातः समाधिवत्यर्थाना सम्यग्ज्ञानात्। ... निर्वितर्कविचारानन्दास्मितानि सस्तुपर्यायविनिमुक्तशुद्धद्रव्यध्यानाभिप्रायेण व्याख्येयः ..................... क्षपक श्रेणिपरिसमाप्तौ
केवलज्ञानलाभस्त्वसम्प्रज्ञातः समाधिः। - पातञ्जलयोगसूत्र १/१८ पर यशो० वृ० ७. स्थानांगसूत्र में समाधि को पांच महाव्रत तथा पांच समिति रूप माना गया है। - स्थानांगसूत्र, १०/३
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