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आध्यात्मिक विकासक्रम
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धर्मध्यान के जो शुभानुबन्धी फल हैं वही उत्कृष्टावस्था में विशेष रूप से प्रथम दो शुक्लध्यान के फल बन जाते हैं। प्रथम दो शक्लध्यानों का फल स्वर्ग की प्राप्ति है तथा अंतिम दो ध्यानों का फल मोक्ष है।
'प्रभा' नामक सप्तम दृष्टि को योग के सप्तम अंग 'ध्यान' के समकक्ष इसलिए माना गया है, क्योंकि इस अवस्था में सूर्य के प्रकाश के समान बोध की प्राप्ति होती है परिणामस्वरूप रुग् नामक दोष विलीन हो जाता है, जिससे ध्यान में शून्यवृत्ति पैदा होती है। ८. परादृष्टि और समाधि ___ आठवीं तथा अन्तिम दृष्टि परादृष्टि' कहलाती है। इसमें चन्द्रमा की शीतल ज्योत्सना के प्रकाश जैसा बोध प्राप्त होता है। यहाँ 'बोध' से तात्पर्य मात्र वस्तु की जानकारी रूप बोध नहीं है, अपितु यह आत्मा की विशिष्ट बोध परिणति का द्योतक है। इस दृष्टि में प्राप्त बोध अत्यंत सौम्य-शांत, तथा शीतल होने से सद्ध्यान रूप ही होता है। ध्यान का विशिष्ट फल 'समाधि' है। इसलिए परादृष्टि को समाधिनिष्ठ माना
। इस अवस्था में पहुंचने पर साधक सभी अंगों (आसक्ति) से रहित हो जाता है, केवल आत्मतत्त्व में ही लीन रहता है, उसमें किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करने की इच्छा नहीं रहती। उसका चित्त प्रवृत्ति से ऊपर उठा हुआ होता है और विकल्परहित हो जाता है। निर्विकल्पक दशा में साधक को उत्तम सुख की प्राप्ति होती है। वह सहज निरतिचार साधना करता है। अतिचारों का अभाव होने से उसे प्रतिक्रमणादि किसी अनुष्ठान के पालन की अपेक्षा नहीं रहती। साधक की आचार-क्रिया पूर्वावस्थाओं की आचार-क्रियाओं से फलभेद की दृष्टि से सर्वथा भिन्न होती है। वह पूर्ण कृतकृत्य होकर ज्ञानावरणीय आदि घातिया कर्मों के क्षय से होने वाले 'धर्मसन्यास' नामक सामर्थ्ययोग को प्राप्त हो जाता है। परिणामस्वरूप उसे बिना किसी बाधा के केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी अधिगत होती है और जब मेघ के समान ज्ञानावरणादि चार घातिकर्म पूर्वोक्त योग रूपी वाय के आघात से हट जाते हैं, तब आत्म-लक्ष्मी से युक्त साधक ज्ञानकेवली अर्थात सर्वज्ञ बन जाता है। समग्रलब्धि-सम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष दोषों के क्षीण हो जाने पर अवशिष्ट अघातिया कर्मों के उदय से अन्य संसारी जीवों के उपकारार्थ आत्मशांति का उपदेश देते हैं और अवशिष्ट चार अघातिया कर्मों को भी नष्ट कर योग की चरमावस्था को प्राप्त कर लेते हैं। योग की चरमावस्था में सयोगीकेवली को मन, वचन और काय रूप योग से रहित अयोग-अवस्था प्राप्त होती है, जिसके परिणामस्वरूप योगी भवव्याधि का क्षय करके निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
ठीक यही स्थिति योग के अष्टम व अन्तिम अंग 'समाधि से प्राप्त होती है। "समाधि' ध्यान की चरमावस्था का ही नाम है। इस अवस्था में ध्याता ध्येय में इतना विलीन हो जाता है कि उसे अपना भी भान नहीं होता। ध्याता और ध्यान दोनों एकाकार हो जाते हैं, ध्येय शेष रहता है। चित्त उसी के आकार
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१. अध्यात्मसार.५/१६/८० २. परायां पुनर्दृष्टौ चन्द्रचन्द्रिकाभासमानो बोधः सद्ध्यानरूप एव सर्वदा .....। - योगदृष्टिसमुच्चय, स्वो० वृ०, गा० १५ ३. समाधिनिष्ठा तु पराऽष्टमी दृष्टिः, “समाधिस्तु ध्यानविशेषः', फलमित्यन्ये। - वही, १७८ ४. समाधिनिष्ठा तु परा तदासंगविवर्जिता।
सात्मीकृतप्रवृत्तिश्च तदुत्तीर्णाशयेति च ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, १७८ ५. वही, १७६
वही, १८०-१८४ क्षीणदोषोऽथ सर्वज्ञः सर्वलब्धिफलान्वितः ।। परं परार्थ सम्पाद्य ततो योगान्तमश्नुते ।। -- योगदृष्टिसमुच्चय, १८५ तत्र द्रागेव भगवानयोगाद्योगसत्तमात् ।
भवव्याधिक्षयं कृत्वा निर्वाणं लभते परम् ।। - वही, १८६ ६. तदा ध्यानमेव समाधिरुच्यते इत्यर्थः । - योगवार्तिक, पृ० २८०
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