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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
स्पर्श करने की शक्ति आदि विभिन्न प्रकार की साधनाओं के ही परिणाम हैं, जो ऋद्धि-सिद्धि के अन्तर्गत आते हैं। पातञ्जल एवं जैन दोनों योग-परम्पराओं में पूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति से पूर्व, साधनावस्था में प्राप्त
ने वाली विशिष्ट ऋद्धियों एवं सिद्धियों की मान्यता को स्वीकारा गया है। इनका पृथक्-पृथक् वर्णन इसप्रकार है
अ. पातञ्जलयोग-मत
योगदर्शन में सिद्धि पद का व्यापक अर्थ में प्रयोग हुआ है इसीलिए यहाँ सिद्धियों की सीमित संख्या बताना संभव नहीं है। सूत्रकार पतञ्जलि ने प्रातिभ, श्रावण, वेदन, आदर्श, आस्वाद और वार्ता आदि का एक साथ सिद्धि' नाम से उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त महर्षि पतञ्जलि ने परशरीर-प्रवेश, जलपंक कंटक आदि से असंग, दिव्य श्रोत्र आदि अनेक ऐश्वर्यों की चर्चा की है, जो योगी को संयम-साधना के परिणामस्वरूप प्राप्त होती हैं। इन्हें भी प्रकरणानुसार सिद्धियाँ कहा जा सकता है। योगसूत्र में इन सिद्धियों का 'विभूति' नाम से विस्तृत विवेचन हुआ है, इसलिए तृतीयपाद को 'विभूतिपाद' नाम दिया गया है। इसके अतिरिक्त साधनपाद में भी यम-नियमादि योगांगों में प्रत्येक अंग से प्राप्त विभूतियों (सिद्धियों) का उल्लेख हुआ है। अतः स्पष्ट है कि योगदर्शन में विभूतियों की संख्या बहुत है। इन विभूतियों को बाह्य एवं आभ्यन्तर भेद से दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। बाह्य वर्ग में योगांगों से प्राप्त सिद्धियाँ परिगणित होती हैं, शेष सिद्धियाँ आभ्यन्तर वर्ग में आती हैं। इनमें प्रथम प्रकार की सिद्धियाँ अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - (१) यमों से प्राप्त सिद्धियाँ १. 'अहिंसावत' के सिद्ध होने पर योगी के सान्निध्य में आने वाले हिंस्र प्राणी भी अपने
स्वाभाविक वैर का त्याग कर देते हैं। 'सत्य' के सिद्ध होने पर साधक की वाणी अमोघ हो जाती है, मुख से निकला हुआ प्रत्येक वचन सत्य हो जाता है। 'अस्तेय' के सिद्ध होने पर धन-सम्पत्ति आदि स्वतः प्राप्त हो जाते हैं। साधक को सब दिशाओं में रहने वाली रत्नादि की समृद्धि प्राप्त होती है। ब्रह्मचर्य से वीर्य लाभ होता है।
अपरिग्रह से साधक को वर्तमान तथा पूर्वजन्मों की साधना का ज्ञान हो जाता है। (२) नियमों से प्राप्त सिद्धियाँ
१. (बाह्य) शौच की स्थिरता से साधक को अपने शरीर से घृणा तथा दूसरों से अलिप्तता का
लज
१. ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ताः जायंते । ते समाधावुपसर्गाः व्युत्थाने सिद्धयः । - पातञ्जलयोगसूत्र, ३/३६, ३७
व्यासभाष्य, ४/१ अथ विभूतिपादस्तृतीयः - पातञ्जलयोगसूत्र, तृतीयपाद की अवतरणिका पातञ्जलयोगसूत्र, २/३५-४५,४८, ४६, ५२, ५३. ५५ अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः । - वही, २/३५ सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।- वही, २/३६ अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थापनम् । - वही, २/३७ ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ! - वही, २/३८ अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथान्तरसम्बोधः । - वही, २/३६
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