Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 254
________________ 236 धर्मध्यान के अधिकारियों के विषय में भी विद्वानों में काफी मतभेद रहा है। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार धर्मध्यान सातवें गुणस्थान से लेकर १२वें गुणस्थान तक संभव है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार चौथे से सातवें गुणस्थान तक धर्मध्यान की संभावना मान्य है।' ज्ञानार्णव में प्रमुख रूप से अप्रमत्तसंयत को और गौण रूप से प्रमत्तसंयत को धर्मध्यान का स्वामी कहा गया है । २ मतान्तर से उसके स्वामी सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थानवर्ती जीव बतलाए गए हैं। आ० हेमचन्द्र के मत में अप्रमत्तसंयत, उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीवों को धर्मध्यान होता है। अनुप्रेक्षा 1 अनुप्रेक्षा का अर्थ है बार-बार देखना, गहराईपूर्वक चिन्तन करना और उस चिन्तन में तल्लीन हो जाना | ध्यान की सिद्धि के लिए अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास करना नितान्त आवश्यक । उनके अभ्यास से जिसका मन सुसंस्कृत हो जाता है, वह विषम स्थिति उपस्थित होने पर भी अविचल रह सकता है, प्रिय और अप्रिय दोनों स्थितियों को समभाव से सहने में समर्थ हो जाता है। जैन शास्त्रों में धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ बताई गई हैं १. एकत्व अनुप्रेक्षा, २. अनित्य अनुप्रेक्षा, ३. अशरण अनुप्रेक्षा और ४. संसार अनुप्रेक्षा । - शुभचन्द्र एवं आ० हेमचन्द्र ने बारहं भावनाओं का वर्णन किया है और उन्हें धर्मध्यान का कारण बताया है। परन्तु धर्मध्यान के लिए पूर्वापेक्षित अभ्यास के रूप में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ - इन चार भावनाओं की ही विवेचना की है। उपा० यशोविजय के अनुसार भ्रान्तिरहित मुनि को ध्यान के विरामकाल में भी सदा अनित्यत्व आदि अनुप्रेक्षाओं का ध्यान करना चाहिए, क्योंकि ये (अनित्यादि अनुप्रेक्षाएँ) ही वास्तव में ध्यान की प्राण रूप हैं। लेश्या आ० हेमचन्द्र एवं उपा० यशोविजय ने धर्मध्यान के समय में क्रमशः उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होने वाली पीत (तेज), पद्म और शुक्ल नामक तीन शुभ लेश्याओं का उल्लेख किया है।" जबकि आ० शुभचन्द्र के अनुसार धर्मध्यान में शुक्ल लेश्या होती है। लिंग आ० शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र ने विषयों में अनासक्ति, निरोगता, दयालुता, शरीर की सुगन्धता, मलमूत्र की हीनता, कान्ति, मुख की प्रसन्नता और स्वर में सौम्यता ये धर्मध्यान के लक्षण बताये हैं।१३ उपा० १. सुखलाल संघवी, तत्त्वार्थसूत्र, (द्वितीय संस्करण). पृ० २२७ २ ज्ञानार्णव, २६ / २६ ३. ज्ञानार्णव, २६ / २८ ४. ५. ६. 19. पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन योगशास्त्र, १०/१६ शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा । सर्वार्थसिद्धि, ६/ २ / ४०६ स्थानांगसूत्र, ४/१/२४७; ध्यानशतक, ६५ ज्ञानार्णव, अधिकार २ योगशास्त्र, ४ / ५५-७६ ज्ञानार्णव, ३८/३ श्र ११. योगशास्त्र, १० / १६: अध्यात्मसार, ५/१६/७१ ज्ञानार्णव. ३८ / १२ १२. १३. ज्ञानार्णव, ३८ / १३ (१) योगशास्त्र, १०/१७ ८. ६. वही, २५/४; योगशास्त्र, ४/११७ १०. अनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा, ध्यानस्योपरमेऽपि हि । भावयेन्नित्यमभ्रान्तः प्राणाः ध्यानस्य ताः खलु ।। अध्यात्मसार, ५/१६/७० Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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