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आध्यात्मिक विकासक्रम
चार प्रकार के ध्यानों का उल्लेख करते हुए भिन्न-भिन्न ध्येयों की चर्चा की है। पिण्डस्थ ध्यान में शरीर के अवयव ध्येय (आलम्बन) होते हैं। इसमें पार्थिवी, आग्नेयी आदि धारणाओं की भी आलम्बन रूप में चर्चा की गई है।' पदस्थ ध्यान में नेत्रपदों का, रूपस्थ में अर्हत् के रूप (प्रतिमा) का तथा रूपातीत में अमूर्त आत्मा के स्वरूप का आलम्बन लेने की बात कही गई है। आ० हेमचन्द्र ने भी पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार प्रकार के ध्येयों का उल्लेख किया है। उपा० यशोविजय ने आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इन चार प्रकार के ध्यानों का ध्येयों (ध्यान के योग्य विषयों) के रूप में निर्देश
किया है।
ध्याता
जैन शास्त्रों में विशेष कर शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में प्रमाद से अभिभूत संयमहीन गृहस्थ व्यक्तियों को ध्यान का अधिकारी मानने में असहमति प्रकट की गई है। मिथ्यादृष्टि एवं जिज्ञासा के प्रतिकूल प्रवृत्ति करने वाले अस्थिरचित्त मुनियों का भी निषेध किया गया है। यहाँ गृहस्थ के ध्यान के निषेध की जो बात कही गई है उसका यह अर्थ नहीं है कि गृहस्थ के धर्मध्यान होता ही नहीं, अपितु उसका अभिप्राय यह है कि गृहस्थ के उत्तम कोटि का ध्यान नहीं होता । आ० हेमचन्द्र का योगशास्त्र तो गृहस्थ की भूमिका पर ही रचित है।
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ध्याता के स्वरूप पर विचार करते हुए कहा गया है कि जो मुमुक्षु जन्म-मरण स्वरूप संसार से विरक्त होकर स्थिरतापूर्वक इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका है वह ध्याता प्रशंसा के योग्य हैं।
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आ० हेमचन्द्र के अनुसार प्राणों के नाश का समय उपस्थित होने पर भी संयम का त्याग न करने वाला, अन्य जीवों को आत्मवत् समझने वाला, अपने लक्ष्य पर दृढ़ रहने वाला, परीषहजयी, मुमुक्षु, राग-द्वेषादि कषायों, दुष्प्रवृत्तियों एवं कामवासनाओं से मुक्त, शत्रु-मित्र, सोने-पाषाण, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान आदि में समभाव रखने वाला, परोपकारी तथा प्रशस्त बुद्धि वाला व्यक्ति ध्यान का अधिकारी हो सकता है।
उपा० यशोविजय ने ऐसे साधक को धर्मध्यान का अधिकारी कहा है जिसकी बुद्धि मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने से निर्विकार हो गई है, जो शान्त (कषायविजेता) और दान्त (इन्द्रिय-विजेता) है।* ध्याता का यह लक्षण गीता के स्थितप्रज्ञ के सदृश है । "
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ज्ञानार्णव, ३४ से ३७ वें अधिकार तक ज्ञानार्णव, ३४ यां अधिकार
वही, ३४ / २, ३
वही, ३७/२१-३०
पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् ।
चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यऽलम्बनं बुधैः ।। - योगशास्त्र, ७/८
आज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तनात् ।
धर्मध्यानोपयुक्तानां ध्यातव्यं स्याच्चतुविर्धम् ।
ज्ञानार्णव, ४/६ - १७
वही, ४/१८. १६
मुमुक्षुर्जन्मनिर्विण्णः शान्तचित्तो दशी स्थिरः ।
जिताक्षः संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते ।। - ज्ञानार्णव, ४/६
१०. मनश्चेन्द्रियाणां च जयाद्यो निर्विकारधीः ।
धर्मध्यानस्य स ध्याता, शान्तो दान्तः प्रकीर्तितः ।। अध्यात्मसार, ५/१६ / ६२
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अध्यात्मसार, ५१६ / ३५.
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११. परैरपि यदिष्टं च स्थितप्रज्ञस्य लक्षणम् ।
घटते ह्यत्र तत्सर्वं तथा चेदं व्यवस्थितम् ।। वही ५/१६ / ६३ तुलना गीता २ / ५५
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