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आध्यात्मिक विकासक्रम
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के कारण होने से उक्त दोनों ध्यान मोक्ष के हेतुभूत यथार्थ ध्यान के स्वरूप एकाग्रचिन्ता-निरोध' के विपरीत हैं। सम्भव है कि वहाँ तप का प्रकरण होने से आर्त और रौद्र इन दो अप्रशस्त ध्यानों का परिगणन न किया गया हो। परन्तु तप का प्रकरण होने पर भी मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र और औपपातिक सूत्र में उपर्युक्त आर्त और रौद्र ध्यान को सम्मिलित कर ध्यान के पूर्वोक्त चारों भेदों का उल्लेख किया गया है। ध्यान के अन्तर्गत इनका वर्णन दोषों का परिमार्जन करने की दृष्टि से किया गया है। जैसे दोष को जाने बिना दोष का परिमार्जन नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार आर्त और रौद्रध्यान को जाने बिना उनके छोड़ने की बात समझ में नहीं आती। आते और रौद्रध्यान को छोड़ना साधक के लिए अत्यावश्यक है इसीलिए ध्यान के अन्तर्गत इनका विवेचन किया गया है। ____ आ० शुभचन्द्र ने ध्यान के अशुभ, शुभ और शुद्ध तीन भेद किये हैं, जो आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल, इन चार ध्यानों में समाविष्ट हो जाते हैं।
आचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत - धर्मध्यान के इन चार अवान्तर भेदों का चित्तवृत्ति को एकाग्र करने की अपेक्षा से वर्णन किया है। इनके योगग्रन्थों में धर्मध्यान के मौलिक रूप आज्ञाविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय के स्थान पर पिण्डस्थ आदि ध्यान वर्णित हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य भावना के स्थान पर पार्थिवी, आग्नेयी, वायवी और मारुति - इन चार भावनाओं का उल्लेख मिलता है। सम्भव है कि हठयोग और तंत्रयोग के प्रति जनसमुदाय के आकर्षण को देखकर उक्त जैनाचार्यों ने भी अपने योगग्रन्थों में परिवर्तन कर इनका समावेश किया हो। वस्तुतः पिण्डस्थ आदि चार ध्यानों का मूल तंत्रशास्त्र है। __ आ० हेमचन्द्र ने धर्म और शुक्ल इन दो प्रशस्त ध्यानों का ही विवेचन किया है। धर्मध्यान में आज्ञाविचय आदि चार भेदों तथा शक्लध्यान में श्रतविचारयक्त पथक्त्ववितर्क आदि चार भेदों का वर्णन है। ध्यान के विषय के अन्तर्गत 'ध्यान' को पिण्डस्थादि चारों भागों में भी विभक्त किया गया है। उपा० यशोविजय ने आर्त आदि ध्यान के चार भेदों एवं उपभेदों का विस्तृत वर्णन किया है। १. आर्तध्यान __ 'ऋते भवम् आर्तम्' इस निरुक्ति के अनुसार ऋत अर्थात् दुःख के निमित्त या दुःख में होने वाला ध्यान 'आर्तध्यान' है। अथवा दुःखी प्राणी का ध्यान 'आर्तध्यान' है। यह ध्यान मिथ्याज्ञान की वासना से उत्पन्न होता है इसलिए इसे दिङ्मूढ़ता या उन्मत्तता के समान कहा गया है। अनिष्ट पदार्थों के संयोग, इष्ट पदार्थों के वियोग, रोगजनित वेदना और अप्राप्त भोगों को प्राप्त करने की आकांक्षा रूप निदान के आश्रय
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Suzuko-Ohira, Treatment of Dhyana, Philosophical Quarterly, Vol - III, No. 1 Oct, '75, p. 54 संक्षेपरुचिभिः सूत्रात्तन्निरूप्यात्मनिश्चयात् । त्रिधैवाभिमतं कैश्चिधतो जीवाशयस्त्रिधा || - ज्ञानार्णव, ३/२७ ज्ञानार्णव, ३७/१ योगशास्त्र, ७/८ पिण्डस्थं च पदस्थ च रूपस्थं रूपवर्जितम् ।। चतुर्धा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीवभास्करैः ।। - ज्ञानार्णव, ३४/१ पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसनाख्याथ वारुणी । तत्त्वरूपवती चेति विज्ञेयास्ता यथाक्रमम् ।। - ज्ञानार्णव, ३४/३ तंत्रालोक, १०/२४१ ऋते भवमथार्तं स्यादसद्ध्यानं शरीरिणाम् । दिङ्मोहोन्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् ।। - ज्ञानार्णव, २३/२१
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