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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
२. अपायविचय, ३. विपाकविचय,४. संस्थानविचय। आज्ञा, अपाय, विपाक तथा संस्थान -ये ध्येय हैं। जिस प्रकार किसी स्थूल या सूक्ष्म आलम्बन पर चित्त को एकाग्र किया जाता है, उसी प्रकार इन ध्येय विषयों पर भी चित्त को एकाग्र किया जाता है।
उक्त क्रमानुसार प्राणी पहले 'सालम्बनध्यान करने में समर्थ होता है। जब उसमें चित्त की स्थिरता हो जाती है, तभी वह 'निरालम्बनध्यान' करने की योग्यता प्राप्त करता है। अनादि विभ्रम, मोह, अनभ्यास और असंग्रह से प्राणी आत्मतत्त्व को जान लेने पर भी स्खलित हो जाता है और आत्मतत्त्वचिंतन में प्रगति नहीं कर पाता। ऐसा प्राणी अज्ञान अथवा मिथ्यात्व के बल पर कभी भी आत्मतत्त्व का चिन्तन करने का विचार करे तो भी उसकी स्व में स्थिति नहीं हो सकती। इसका कारण उसकी झूठावस्था और स्थूल वस्तुओं के ऊपर राग है। ऐसे प्राणियों को निरालम्बन आत्मतत्त्व का चिंतन करने से पूर्व वस्तुधर्म का चिंतन कर स्थिरता प्राप्त कर लेनी चाहिये। जिस-जिस प्रमाण में वह लक्ष्य में से अलक्ष्य में, स्थूल से सूक्ष्म में, सालम्बन से निरालम्बन में प्रवेश करता है उसी के आधार पर धर्मध्यान के चार भेद बताए गये हैं।
(१) आज्ञाविचय'
आज्ञा का अभिप्राय है - किसी विषय को भली प्रकार जानकर उसका आचरण करना। विचय का अर्थ है - विचार करना। योग-मार्ग में ध्यान के संदर्भ में इसका आशय तीर्थंकर भगवान द्वारा कथित उपदेशों के चिन्तन से है। जिस ध्यान में सर्वज्ञ की आज्ञा के अनुसार आगमसिद्ध वस्तु के स्वरूप का विचार किया जाता है वह 'आज्ञाविचय' कहलाता है।
(२) अपायविचय
अपाय का अर्थ है – विनाश, दोष या दुर्गुण। जिस ध्यान में कर्मों के विनाश और उपाय का विचार किया जाता है वह 'अपायविचय' कहलाता है। दूसरे शब्दों में ध्यान में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष, क्रोधादि कषाय, विषय-विकार आदि पापस्थानों तथा तज्जनित कष्टों, दुर्गतियों आदि का चिन्तन करना 'अपायविचय' है। (३) विपाकविचय
पूर्वबद्ध कर्म उदय में आकर जो प्रत्येक क्षण अनेक प्रकार के फल देते हैं उसका नाम विपाक है। अतः क्षण-क्षण में उत्पन्न होने वाले विभिन्न प्रकार के कर्मफल के उदय का चिन्तन करना 'विपाकविचय' है। (४) संस्थानविचय संस्थान का अर्थ है - आकार । इस ध्यान में अनादि अनन्तस्थायी परन्तु उत्पाद, व्यय और धौव्य स्वरूप लोक की आकृति एवं स्थिति आदि का विचार किया जाता है। इस लोक संस्थान में स्वयं आत्मा अपने कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता है, अरूपी है, अविनाशी है तथा उपयोग लक्षण से युक्त है ऐसा विचार करना भी 'संस्थानविचय' ध्यान कहलाता है। इसके अतिरिक्त आगमोत्तरवर्ती जैन साहित्य में ध्यान के अन्य भेदों का उल्लेख भी मिलता है। यथा - पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान। आ० शुभचन्द्र एवं
१. ज्ञानार्णव ३०वा अधिकार; योगशास्त्र १०/६-१०: अध्यात्मसार.५/१६/३६ २. ज्ञानार्णव ३१वां अधिकार; योगशास्त्र १०/१०, ११; अध्यात्मसार, ५/१६/३७ 3. ज्ञानार्णव ३२वां अधिकार: योगशास्त्र १०/१२, अध्यात्मसार, ५/१६/३८ ४. ज्ञानार्णव ३३वां अधिकार: योगशास्त्र १०/१४: अध्यात्मसार, ५/१६/३६
भावसंग्रह ६१६-३०; अमितगतिश्रावकाचार, १५/२३-५६ पिण्डरथं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीवभास्करैः ।। - ज्ञानार्णव. ३४/१
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