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आध्यात्मिक विकासक्रम
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आ० हेमचन्द्र ने भी इनका विस्तृत वर्णन किया है। आ० हेमचन्द्र ने उक्त चार प्रकार के ध्यानों का वर्णन ध्यान के विषय (ध्येय) के अंतर्गत किया है।
तंत्रशास्त्र में भी पिण्ड, पद, रूप और रूपातीत, इन चारों ध्यानों का वर्णन प्राप्त होता है। दोनों के अर्थ-भेद को छोड़कर देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैन साहित्य का उपर्युक्त वर्गीकरण तंत्रशास्त्र से प्रभावित है।
(क) पिण्डस्थध्यान
पिण्ड का अर्थ है - शरीर पिण्ड अर्थात शरीर का आलम्बन लेकर किया जाने वाला ध्यान पिण्डस्थ ध्यान' है। इसमें शरीर के विभिन्न भागों पर मन को केन्द्रित किया जाता है। इसमें धारणाओं का आलम्बन भी लिया जाता है। आ० शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र ने पाँच प्रकार की धारणाओं का निर्देश कर पिण्डस्थ ध्यान के स्वरूप को और अधिक विकसित कर दिया है। ये पाँच धारणाएँ हैं - १. पार्थिवी, २. आग्नेय, ३. मारुति, ४. वारुणी और ५. तत्त्वरूपवती (तत्त्वभू)।
पार्थिवी धारणा
प्रथम पार्थिवी धारणा में योगी मध्यलोक के समान क्षीर-समुद्र, उसमें हजार पत्तों वाले जम्बूद्वीप प्रमाण कमल, उसमें मेरु पर्वत स्वरूप कर्णिका, उसके ऊपर उन्नत सिंहासन और उसके ऊपर राग-द्वेष से रहित आत्मा का स्मरण करता है।
आग्नेयी धारणा
आग्नेयी धारणा में साधक नाभिमण्डल में सोलह पत्तों वाले कमल, उसके प्रत्येक पत्र पर अकारादि के क्रम से स्थित सोलह स्वरों और उसकी कर्णिका पर महामंत्र (इ) की कल्पना करता है। फिर उस महामंत्र की रेफ से निकलती हुई अग्निकणों से संयुक्त ज्वाला वाली धूमशिखा का चिन्तन करता है। इस ज्वाला समूह के द्वारा वह हृदयस्थ उस आठ पत्तों वाले अधोमुख कमल को भस्म होता हुआ देखता है, जिसके आठ पत्तों पर ज्ञानावरणदि आठ कर्म स्थित हैं। तत्पश्चात् वह शरीर के बाहर उस त्रिकोण अग्निमण्डल का स्मरण करता है, जो शरीर और उस कमल को जलाकर बाह्य कुछ शेष न रहने से स्वयं शान्त हो गया है।
मारुति (वायवी) धारणा
इस धारणा में साधक महासम क्षुब्ध कर आकाश में विचरण करने वाली भयानक. उस प्रबल वायु का चिन्तन करता है, जो पृथ्वीतल में प्रविष्ट होकर आग्नेयी धारणा में देह एवं कमल को जलाने के बाद
१. पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् ।
चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्याऽलम्बनं बुधैः ।। - योगशास्त्र.७/८ तन्त्रालोक १०/२४१ योगशास्त्र.७/८ पर स्वोपज्ञ वृत्ति ज्ञानसार, १६-२० ज्ञानार्णव, ३४/२.३
योगशास्त्र. ७/६ ७. ज्ञानार्णव, ३४/४६: योगशास्त्र. ७/१०-१२ ८. ज्ञानार्णव, ३४/१०-१६: योगशास्त्र, ७/१३-१८ ६. ज्ञानार्णव. ३४/२०-२३: योगशास्त्र.७/१६, २०
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