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आध्यात्मिक विकासक्रम
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"विसभागपरिक्षय' तथा शैवदर्शन में "शिववर्त्म', अन्य महाव्रतियों के मत में 'ध्रुवमार्ग' कहा जाता है।' आ० हरिभद्रसूरि ने योगदृष्टिसमुच्चय में इसे समाधिनिष्ठ अनुष्ठान भी कहा है। चित्त की पूर्ण स्वस्थ अवस्था जिसमें कोई भेद-विभेद, रति-अरति का स्पर्श नहीं होता, 'समाधि' कहलाती है। चित्त की ऐसी शान्त-प्रशान्त अवस्था में योगी साधक के समीप आने वाले क्रूर-हिंसक-वैरी जीवों का वैर-विरोधभाव नष्ट हो जाता है। परिणामस्वरूप वह अन्य प्राणियों को कल्याण का मार्ग बताकर परोपकार परायण बन जाता है। उसकी सब क्रियाएँ परमार्थभाव रूप होने से अवन्ध्य-अमोघ होती हैं और निश्चय ही मुक्ति फलप्रदायिनी होती
हैं।
___ 'ध्यान' योग का सातवां तथा अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। 'ध्यै चिन्तायाम्' धातु में ल्युट् प्रत्यय के योग से निष्पन्न ध्यान का अर्थ है - मनन, विचार या चिन्तन । किन्तु योग में इसका आशय कुछ भिन्न है। योग की परिभाषा में ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं है, अपितु चिन्तन का एकाग्रीकरण है। अर्थात् चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना 'ध्यान' है। पतञ्जलि के अनुसार धारणा में जहाँ चित्त को ठहराया जाए उसी में वृत्ति का बने रहना 'ध्यान' है। भाष्यकार व्यास इसी बात को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जब चित्त की वृत्ति किसी एक ध्येय में समान प्रवाह से लगी रहे और अन्य कोई वृत्ति बीच में न आए तो वह स्थिति 'ध्यान' कहलाती है।
जैनयोग में ध्यान _ जैनयोग में ध्यान को विशिष्ट स्थान दिया गया है। वस्तुतः जैनयोगानुसार ध्यान जहाँ मन की चंचल वृत्तियों को नियंत्रित करके मन को स्थिर करता है वहाँ, कर्मों की निर्जरा करके साधना को पूर्णता प्रधान करता है। जैनमत में भी पातञ्जलयोगदर्शन की भाँति किसी एक प्रबल विषय पर चित्त को स्थिर करने को 'ध्यान' कहा गया है। उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति को रोकना भी 'ध्यान' है,जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है। उमास्वाति ने एकाग्रचिन्ता तथा शरीर, वाणी और मन के निरोध को 'ध्यान' कहा है। ध्यान में नाना पदार्थों का अवलम्बन लेने वाली परिस्पन्दवती चिन्ता को हटाकर किसी एक ध्येय में निरोध किया जाना ही 'एकाग्रचिन्तानिरोध' पद का अर्थ है। इसी दृष्टि से चित्त विक्षेप के त्याग को भी 'ध्यान' कहा गया है। इससे स्पष्ट होता है कि जैन-परम्परा में ध्यान का सम्बन्ध केवल
१. (क) प्रशान्तवाहितासंज्ञं विसभागपरिक्षयः ।
शिववर्त्म धुवाध्येति योगिभिर्गीयते ह्यदः ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, १७६ (ख) प्रशान्तवाहितासंज्ञ-सांख्यानां, विसभागपरिक्षयो-बौद्धानां, शिववर्त्म-शैवाना, ध्रुवाध्या-महाव्रतिकानां, इत्येवं योगिभिर्गीयते
हादोऽसंगाऽनुष्ठानमिति । - वही, गा० १७६ स्वो० वृ० (ग) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २४/२२ (क) अकिंचित्कराण्यत्रान्यशास्त्राणि, समाधिनिष्ठमनुष्ठानं, तत्सन्निधौ वैरादिनाशः, परानुग्रहकर्तृता, औचित्ययोगो विनेयेषु,
तथावन्ध्या सत्क्रियेति । - योगदृष्टिसमुच्चय, गा० १५ स्वो० वृ० (ख) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २४/२३-२५ तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् ।-पातञ्जलयोगसूत्र, ३/२ तस्मिन्देशे ध्येयावलम्बनस्य प्रत्ययस्यैकतानता सदृश प्रवाहः प्रत्ययान्तरेणापरामृष्टो ध्यानम् । - व्यासभाष्य, पृ० ३१४-१५ तत्त्वार्थसूत्र. ६/३. २७ (क) अतो मुत्तकालं चित्तस्सेगग्गणया हवइ झाणं। - आवश्यकनियुक्ति, गा० १४७७ (ख) ध्यानशतक,२
(ग) ध्यानं तु विषये तरिमन्नेकप्रत्ययसंततिः। - अभिधानचिन्तामणिकोश, १/८४ ७. उत्तमसहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्। - सर्वार्थसिद्धि, ६/२७ ८. तत्त्वार्थसूत्र, ६/२७
औपपातिकसूत्र, २६/२५, सर्वार्थसिद्धि, ६/२७/८७२ १०. चित्तविक्षपत्यागो ध्यानम्। - वही, ६/२०/८५७
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