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आध्यात्मिक विकासक्रम
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कहना है कि जिस तप के करने से क्रोधादि कषायों का नाश, ब्रह्म और वीतराग का ध्यान होता है, उसे ही शुद्ध और निर्दोष तप समझना चाहिये। जैन मतानुसार सत्शास्त्रों को मर्यादापूर्वक पढ़ना, विधिसहित अध्ययन करना स्वाध्याय' है। जैनागमों में स्वाध्याय को तप का ही एक भेद माना गया है इसलिए जैन योगाचार्यों ने पृथक् रूप से स्वाध्याय की चर्चा नहीं की। जैन शास्त्रों में ईश्वर-प्रणिधान की अपेक्षा 'प्रणिधान' शब्द का प्रयोग दिखाई देता है, जिसका अर्थ है - परमगुरु स्वरूप प्रभु में ही सब शुभाशुभ कर्मों को अर्पण कर देना अथवा कर्मफल का त्याग कर देना।
हरिभद्रादि प्रमुख जैनयोगाचार्यों में केवल यशोविजय ने ही पातञ्जलयोगसूत्र वृत्ति में ईश्वरप्रणिधान के संबंध में स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है। उनके मत में प्रत्येक अनष्ठान के मुख्य प्रवर्तक शास्त्र का स्मरण कर (दृष्टि के सम्मुख रखकर) तद्वारा उसके आदि उपदेशक परमगुरु (वीतराग) को हृदय में स्थान देना 'ईश्वर-प्रणिधान' है। जैनमतानुयायियों की ईश्वर-स्मृति पातञ्जलयोगसूत्र के ईश्वरप्रणिधान से भिन्न है क्योंकि पतञ्जलि का ईश्वर तो कल्पना मात्र है, जिसका न कोई रूप है, न ध्येयाकार है। परन्तु जैनों के ध्येय जिनेश्वर (वीतराग) साक्षात् इस धरती पर पैदा हुए हैं। अतः उनका रूप और आकार दोनों हैं। जैन प्रतिमाओ में जिनेश्वर का वही स्वरूप परिलक्षित होता है। साधक उसके ध्यान से उस स्वरूप को अपने अन्तःकरण में धारण करके आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति करता है, इसीलिए कहा गया है कि मुनीन्द्र को हृदय में स्थापित करने पर सब कार्यों की सिद्धि होती है।
तारा नामक द्वितीय दृष्टि की 'नियम' नामक द्वितीय योगांग से तुलना करने का महत्वपूर्ण कारण यह है कि इस दृष्टि में साधक मिथ्यात्व का अंश कुछ कम होने से नियमों के प्रति निष्ठावान बनता है। पतञ्जलि के संतोषादि पांचों नियम हरिभद्र द्वारा निरूपित पूर्वसेवा में समाविष्ट हो जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि यमों की भांति नियम भी योग की आधा
३. बलादृष्टि और आसन ____ मित्रा' और 'तारा' नामक दो दृष्टियों में जो अल्पबोधप्रकाश होता है, वह 'बला' नामक तृतीय दृष्टि में अपेक्षाकृत कुछ बढ़ जाता है। इस दृष्टि में होने वाले प्रकाश में पहले की अपेक्षा अधिक समय तक स्थिर रहने की विशिष्टता होती है। ऐसे प्रकाश की उपमा काष्ठ की चिनगारी से दी गई है।
इस दृष्टि में साधक अपनी आत्मोन्नति के लिए अधिक पुरुषार्थ करता है। शरीर की चंचलता को दूर कर स्थिरता लाने के लिए योग-साधना में 'आसन' क्रिया का आश्रय लेता है। परिणामस्वरूप साधक को
ग की उत्कट अभिलाषा, विक्षेपों का अभाव, असत्तृष्णा का अभाव, निर्बाध
व्यात्मसार. ६/अभयदेववृत्तिाटक वृत्ति धानम्।
यत्र रोधः कषायाणां, ब्रह्मध्यानं जिनस्य च। ज्ञातव्यं तत्तपः शुद्धमवशिष्टं तु लंघनम्।। - अध्यात्मसार, ६/१८/१५७ सुष्ठु आ-मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः । - स्थानांगसूत्र, अभयदेववृत्ति, ३४६ पृ० २३३
सर्वक्रियाणां परमगुरावर्पण तत्फलं संन्यासो वा। - मूलाराधना पर कर्णाटक वृत्ति ४. सर्वत्रानुष्ठाने मुख्यप्रर्वतकशास्त्रस्मृतिद्वारा तदादिप्रवर्तकपरमगुरोर्हदये निधानमीश्वरप्रणिधानम्।
- पातञ्जलयोगसूत्र, २/१ पर यशो० वृ० अस्मिन् हृदयस्थे सति, हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनीन्द्र इति। हृदयस्थिते च तरिमन्नियमात् सर्वार्थसंसिद्धि ।। - षोडशक, २/१४; पातञ्जलयोगसूत्र २/१ पर यशो० वृ० विज्ञाय नियमानेतानेवं योगोपकारिणः।।
अत्रैतेषु रतो दृष्टौ भवेदिच्छादिकेषु हि।। - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, २२/५ ७. क) बलायामप्येष काष्ठाग्निकणकल्पो विशिष्ट ईषदुक्तबोधद्वयात्, तद्भवतोऽत्र मनाक स्थितिवीर्ये, अतः पटुप्राया स्मृतिरिह
_ प्रयोगसमये तदभावे चार्थप्रयोगमात्रप्रीत्या यत्नलेशभावादित। - योगदृष्टिसमुच्चय, स्वो० वृ० गा० १५ ख) बलाया दृष्टौ दर्शनं दृढं काष्ठाग्निकणोद्योतसममिति कृत्वा। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, स्वो० वृ० २२/१०
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