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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
जैन-साधना-पद्धति में मन की प्रवृत्ति का संकोच कर लेने पर होने वाला मानसिक संतोष 'प्रत्याहार' माना गया है। योगदर्शन में 'प्रत्याहार' से जो आशय व्यक्त किया गया है, वही अभिप्राय जैन-परम्परा में प्रतिसंलीनता तप से प्रकट होता है। संलीनता का अर्थ है - पूर्ण रूप से लीन होना । यहाँ 'प्रति' शब्द किसी का वाच्य है। प्रतिसंलीनता का अभिप्राय है - आत्मा के प्रति संलीनता अर्थात् आत्मा के प्रति पूर्णरूप से लीन होना। इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है कि बाह्यमुखी इन्द्रियों को विपरीत करके, मोड़कर करना, आत्मा में लगाना। जैनागमों में प्रतिसंलीनता के चार प्रकार बताए गए हैं -
१. ३.
इन्द्रियप्रतिसंलीनता योगप्रतिसंलीनता
२. ४.
कषायप्रतिसंलीनता विविक्तशयनासनसेवन
प्रत्याहार' प्रतिसंलीनता के प्रथम और द्वितीय प्रकार से साम्य रखता है। साधना के रूप में इन्द्रियों की विषय-विमुखता को राग-द्वेष आदि विकारों की शान्ति के प्रकाश में देखा जा सकता है।
आ० शुभचन्द्र ने समाधि को भली-भाँति सिद्ध करने के लिए प्रत्याहार का उल्लेख किया है। उनके मत में प्राणायाम से विक्षिप्त हुआ मन स्वस्थता को प्राप्त नहीं होता, परन्तु प्रत्याहार से स्थिर हुआ मन स्वस्थ और समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित होकर समभाव को प्राप्त होता हुआ आत्मा में ही लय को प्राप्त होता है। उन्होंने प्रत्याहार का लक्षण करते हुए कहा है कि योगी इन्द्रियों सहित मन को इन्द्रियविषयों से हटाकर उसे इच्छानुसार जहाँ धारण करता है उसे 'प्रत्याहार' कहा जाता है। इसप्रकार मन को स्वाधीन कर लेने पर योगी कछुए के समान इन्द्रियों को संकुचित करके समताभाव को प्राप्त होता हुआ ध्यान में स्थिर हो जाता है और जितेन्द्रिय योगी विषयों से इन्द्रियों को तथा इन्द्रियों से मन को पृथक् (विमुख) करके आकुलता से रहित हुए मन को अतिशय स्थिरतापूर्वक मस्तक में धारण करता है।" ___ आ० हेमचन्द्र के अनुसार बाह्य विषयों से इन्द्रियों के साथ मन को हटाना 'प्रत्याहार' है। उन्होंने अभिधानचिन्तामणि में नेत्रादि इन्द्रियों को रूपादि विषयों से हटाने को प्रत्याहार' कहा है। उपा० यशोविजय के शब्दों में, सम्पूर्ण राग-द्वेष से मन को हटाकर आत्मा को अपने में केन्द्रित कर लेना 'प्रत्याहार' है। इसप्रकार पातञ्जल एवं जैन, दोनों योग-परम्पराओं में ध्यान को केन्द्रित करने और राग-द्वेष आदि प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करने के लिए प्रत्याहार की महत्ता को स्वीकारा गया है। परन्तु उपा० यशोविजय को, पतञ्जलि द्वारा मान्य इन्द्रियों के निरोध को उनकी परमा वश्यता का उपाय मानने
१. प्रत्याहारस्तु तस्योपसंहृतैः चित्तनिवृत्तिः । - आदिपुराण, २१/२३० २. भगवतीसूत्र, २५/७/८०२; औपपातिकसूत्र, १६ ३. औपपातिकसूत्र, १६; स्थानांगसूत्र, ४/१/२६७ ४. ज्ञानार्णव, २१/४, ५
समाकृष्येन्द्रियार्थेभ्यः साक्षं चेतः प्रशान्तधीः । यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार उच्यते || - ज्ञानार्णव, २७/१ वही, २७/२
वही, २७/३ ८. इन्द्रियैः सममाकृष्य विषयेभ्यः प्रशान्तधीः ।- योगशास्त्र, ६/६
प्रत्याहारस्तु इन्द्रियाणां विषयेभ्यः समाहृति | - अभिधानचिन्तामणिकोश, ८३ १०. विषयासंप्रयोगेऽन्तःस्वरूपानुकृतिः किल ।
प्रत्याहारो हृषीकाणामेतदायत्तताफलः ।। - द्वात्रिंशदवात्रिंशिका, २४/२
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