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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
और मन की संक्लेशभय स्थिति मोक्ष में बाधक होती है। दूसरे मतानुसार प्राणायाम से शरीर को कुछ देर के लिए साधा तो जा सकता है, परन्तु साध्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस क्रिया से मोक्षलाभ नहीं हो सकता।
उपा० यशोविजय ने तो स्पष्टतः प्राणायाम का निषेध किया है। उनका मंतव्य है कि प्राणायाम चित्तनिरोध का और इन्द्रियजय का साधन नहीं है, इससे योग-साधना में विघ्न उपस्थित होता है। जैनागमों में भी इसका निषेध किया गया है, इसलिए प्राणायाम को मान्यता नहीं दी जा सकती।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि नियुक्तिकार ने तत्काल मरण की सम्भावना की दृष्टि से उच्छ्वास के पूर्ण निरोध का निषेध किया है। चूंकि उच्छवास-निरोध का संबंध कुम्भक से है न कि पूरक और रेचक से और नियुक्तिकार को भी दीर्घकालीन कुम्भक का निषेध अभिप्रेत था, न कि सामान्य कुम्भक का, इसलिए उन्होंने स्वयं उच्छवास को सूक्ष्म करने का उल्लेख किया है। अतः यह कहना कि जैनयोग में 'प्राणायाम' को हठयोग का साधन होने के कारण मान्यता नहीं दी गई, अनुचित है। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनयोग में प्राणायाम का पूर्णतः (समग्रतया) निषेध नहीं किया गया है अपितु कुछ अंश तक उसे स्वीकारा ही है। प्राणायाम का निषेध करने का मुख्य कारण यह हो सकता है कि प्राणायाम योग्य मार्ग निर्देशक के मार्गदर्शन में करना अपेक्षित है क्योंकि उचित पद्धति के अभाव में अथवा असावधानीवश किए जाने पर प्राणायाम के दुष्परिणाम भी दृष्टिगोचर होने लगते हैं। ___ आ० हरिभद्र द्वारा दीप्रादृष्टि को प्राणायाम के सदृश बताने का प्रमुख कारण भावमलों का त्याग कर भावों को निर्मल बनाना था, जो बाह्य भावों के रेचन (त्याग), अन्तरात्मभाव के पूरन तथा उसी के चिन्तन-मनन के कुम्भक (स्थिरीकरण) से सम्भव होता है। ५. स्थिरादृष्टि और प्रत्याहार
प्रथम चार दृष्टियों में मिथ्यात्व अवस्था विद्यमान रहने से ग्रन्थि-भेद नहीं होता। अनन्तानुबन्धि नामक कषाय की राग-द्वेष रूपी बांस की गांठ के समान कठोर, कर्कश और दुर्भेद्य ग्रन्थि सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाधक होती है। पांचवीं दृष्टि में उस दुर्भेद्य ग्रन्थि का भेदन हो जाता है और साधक को सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है। परिणामस्वरूप साधक को रत्न की प्रभा के सदृश नित्य एवं सूक्ष्मबोध की प्राप्ति होती है। यह बोध अप्रतिपाती, प्रवर्धमान, निरपाय, दूसरों को सन्ताप न देने वाला, निर्दोष, आनन्ददायक और प्राय
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१. (क) तन्नाप्नोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामैः कदर्थितम् ।
प्राणस्यायमने पीड़ा, तस्यां स्याच्चित्तविप्लवः ।। पूरणे कुम्भने चैव, रेचने च परिश्रमः |
चित्तसंक्लेश करणात्. मुक्तेः प्रत्यूहकारणम् ।। - योगशास्त्र, ६/४.५ (ख) प्राणायामेन विक्षिप्तं मनः स्वास्थ्यं न विन्दति ।। - ज्ञानार्णव, २७/४-११ २. ज्ञानार्णव, २६/१४०, २६/४३(१); योगशास्त्र, ५/१०-१२
योगशास्त्र : एक अनुशीलन, पृ०४१ अनैकान्तिकमेतत्, प्रसह्य ताभ्यां मनो व्याकुलीभावात् 'ऊसासं (उस्सास) ण णिरुंभइ (आवश्यकनियुकित १५१०) इत्यादि पारमर्षेण तन्निषेधाच्च, इति वयम् । - पातञ्जलयोगसूत्र १/३४ पर यशो० वृत्ति आवश्यकनियुक्ति, १५२४ । प्राणायामादि युक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत् । अयुक्ताभ्यासयोगेन सर्वरोगसमुदभवः ।। हिक्का श्वासश्च कासश्च शिरः कर्णाक्षिवेदनाः । भवन्ति विविधाः रोगाः पवनस्य प्रकोपतः ।। - हठयोगप्रदीपिका, २/१६, १७
ॐ
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