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आध्यात्मिक विकासक्रम
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प्रणिधानादि पाँच आशयों का बीजभूत होता है। आ० हरिभद्र ने स्थिरादृष्टि को अष्टांगयोग के प्रत्याहार के समान माना है और कहा है कि इस दृष्टि के प्राप्त होने पर साधक को पूर्णतया अभ्रान्त, निर्दोष, सूक्ष्मबोध प्राप्त होता है। तमोग्रन्थि का भेद हो जाने से साधक की सभी सांसारिक चेष्टाएँ बालक्रीड़ा मात्र रह जाती हैं। साधक को संसार की क्षणभंगुरता एवं निःसारता का भान, धर्मजनित भोग में अनिष्ट बुद्धि का उदय, हेय-उपादेय तत्त्वों का ज्ञान तथा इन्द्रिय-संयम होता है तथा उसके सभी प्रयत्न धर्म-बाधा के परिहार के प्रसंग में होते हैं।
स्थिरादृष्टि दो प्रकार की कही गई है- सातिचार और निरतिचार । सातिचार स्थिरादृष्टि में होने वाला बोध मल सहित रत्नप्रभा के समान अतिचार युक्त होता है, जो सम्यग्दर्शन के अतिचार युक्त होने से सदा एक-सा नहीं रहता। उसमें न्यूनाधिक्य होता रहता है। इसके विपरीत निरतिचार स्थिरादृष्टि में अतिचारों (दोषों) का अभाव होने से उसमें होने वाला बोध नित्य होता है। धर्म-साधना में दोषों की अल्पता होने से साधक में कुछ यौगिक गुणों का समावेश हो जाता है। आ० हरिभद्रसूरि के मतानुसार अन्य योगाचार्यों द्वारा योगी साधक को प्राप्त होने वाले गुण, जैसे - अचंचलता, नीरोगता, अनिष्ठुरता, मलादि की अल्पता, कान्ति, प्रसाद, स्वरसौम्यता, मैत्रीभाव, विषयों में अनासक्ति, द्वन्द्व-नाश, जनप्रियता, समता, वैरनाश तथा ऋतम्भराप्रज्ञा आदि इस दृष्टि में भी सम्पन्न होते हैं।
पातञ्जलयोगसूत्र में भी प्रत्याहार से इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने की बात कही गई है और उसे परमा (सर्वोत्कृष्ट) वश्यता (इन्द्रियजय) की संज्ञा भी दी गई है। व्यासभाष्य के अनुसार कुछ विद्वान् शब्दादि विषयों में अव्यसन अर्थात् आसक्ति के अभाव को, कुछ अपनी इच्छा से ही शब्दादि विषयों के साथ इन्द्रियों के संप्रयोग (सम्बन्ध) होने को, तथा कुछ शब्दादि विषयों के ज्ञान होने को 'इन्द्रियजय' कहते हैं। योगी जैगीषव्य का मत है कि चित्त की एकाग्रता होने से उसके अधीन इन्द्रियों की शब्दादि विषयों में प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव ही इन्द्रिय-वश्यता रूप 'इन्द्रियजय' है। इनमें से भाष्यकार इन्द्रियों के निरोध अर्थात् शब्दादि विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्बन्ध-विच्छेद को ही 'इन्द्रियजय' मानते हैं। अतः चित्तनिरोध ही परमा वश्यता का उपाय है। __'प्रत्याहार' योग का पांचवा अंग है, जिसका अर्थ है - पीछे हटना, रोकना या इन्द्रिय-दमन करना। सूत्रकार पतञ्जलि के अनुसार इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्प्रयोग न होने पर उनका चित्त के स्वरूप में विलीन हो जाना ही 'प्रत्याहार' है।'
१. स्थिरा तु भिन्नग्रन्थेरेव भवति तद्बोधो रत्नप्रभासमानस्तद्भावाऽप्रतिपाती प्रवर्धमानो निरपायो नापरपरितापकृत परितोषहेतु:
प्रायेण प्रणिधानादियोनिरिति। - योगदृष्टिसमुच्चय, १५, स्वो० वृ० स्थिरायां दर्शनं नित्यं प्रत्याहारवदेव च । कृतमभान्तिमनघं सूक्ष्मबोधसमन्वितम् ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, १५४
योगदृष्टिसमुच्चय, १५५-१५८ ४. स्थिरायां दृष्टी, दर्शन-बोधलक्षणं नित्यमप्रतिपाति निरतिचारायाम, सातिचारायां तु प्रक्षीणनयनपटलोपद्रवस्य
तदुक्तोपायानयबोधकल्पमनित्यमपि भवति तथातिचारभावात्। - योगदृष्टिसमुच्चय, १५४, स्वो० वृ० वही, १६१ ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्। - पातञ्जलयोगसूत्र, २/५५ शब्दादिष्वव्यसनमिन्द्रियजय इति केचित् । सक्तिर्व्यसनं व्यस्यत्येनं श्रेयस इति। अविरुद्धा प्रतिपत्तिाय्या। शब्दादिसंप्रयोगः स्वेच्छयेत्यन्ये । रागद्वेषाभावे सुखदुःखशून्यं शब्दादिज्ञानमिन्द्रियजय इति केचित् । चित्तैकाग्रयाप्रतिपत्तिरेवेति जैगीषव्यः । ततश्च परमा त्वियं वश्यता यच्चित्तनिरोधे निरुद्धानीन्द्रियाणि नेतरेन्द्रियजयवत् प्रयत्नकृतमुपायान्तरमपेक्षन्ते योगिन इति ।।
.. व्यासभाष्य, पृ० ३१०-३११ ८. स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः |- पातञ्जलयोगसूत्र, २/५४
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