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आध्यात्मिक विकासक्रम
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कहलाते हैं।' पातञ्जलयोगसूत्र में उल्लिखित यम व्रत' तो कहे जा सकते हैं परन्तु सार्वभौम न होने के कारण महाव्रत नहीं।
मित्रादृष्टि को प्रथम योगांग 'यम' के समकक्ष इसलिए माना गया है क्योंकि यह प्रथम गुणस्थानवर्ती होने से मिथ्यात्वयुक्त होती है। परन्तु इसमें मिथ्यात्व का कुछ अंश कम होता है परिणामस्वरूप जीव अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह रूप व्रतों/यमों के प्रति निष्ठावान बनता है। जैनदर्शन के व्रत तो सम्यग्दर्शन अर्थात् यथार्थ श्रद्धान से युक्त अनुष्ठान होते हैं। एक सामान्य व्यक्ति के लिए प्रारम्भ में इन व्रतों का यथार्थ पालन करना असम्भव होता है। इसलिए आ० हरिभद्र ने यम के पांच भेदों में प्रत्येक के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थैर्य और सिद्धि चार-चार भेद किये है। प्रथम दृष्टि में अहिंसादि यमों में प्रवृत्ति न होने पर भी साधक के मन में उनके पालन करने की इच्छा जाग्रत होती है। अतः मित्रादृष्टि में, 'यम' की प्रथम श्रेणी 'इच्छायम' सुलभ होने से ही "मित्रादृष्टि' और 'यम' में सादृश्य दर्शाया गया है। २. तारादृष्टि और नियम ___ 'तारा' नामक दूसरी दृष्टि में राग-द्वेष का प्रभाव कुछ अधिक कम होने से आत्मबोध 'मित्रादृष्टि' की अपेक्षा कुछ अधिक स्पष्ट होता है। इसकी उपमा उपलों की चिनगारी से दी गई है जिनका प्रकाश तृणाग्नि से कुछ अधिक होता है। परन्तु यह प्रकाश पहले की अपेक्षा अधिक स्पष्ट होने पर भी 'मित्रादृष्टि' के समान ही इष्टकार्य की सिद्धि में समर्थ नहीं होता। इस दृष्टि में होने वाले बोध में स्थायित्व भी नहीं होता। इस दृष्टि में साधक आत्मविकास के लिए अधिक प्रयत्नशील रहता है। वह यमों की अपेक्षा अधिक उन्नतकारी नियमों का पालन रहता है। इनके पालन से वह कलुषित भावों को चित्त से हटाकर आत्मपरिणामों को अधिक निर्मल बनाने की चेष्टा करता है। चित्त अपेक्षाकृत अधिक निर्मल होने से उसका उद्वेग नामक दोष दूर हो जाता है तथा विवेक जगने लगता है। परिणामस्वरूप साधक के मन में अपने दोष और कमियों के लिए खेद तथा आत्मोत्थान के लिए तत्त्वोन्मुखी जिज्ञासा उत्पन्न होती है। उसके फलस्वरूप योग-कथाओं में अवच्छिन्न प्रीति, शुद्धाचरण करने वाले योगियों के प्रति आदरभाव, उपद्रव-हानि श्रद्धावृद्धि, अशुभकर्मों से सहजनिवृत्ति, भवभय से निवृत्ति, द्वेषभाव राहित्य, शास्त्रज्ञान के प्रति तीव्र जिज्ञासा एवं प्राप्त ज्ञान के प्रति असंतोष तथा अन्त में शिष्टजनों के प्रति प्रामाणिकता का भाव उत्पन्न होता है। पातञ्जलयोगसूत्र में भी नियमों के सर्वात्मना पालन से अपने शरीर के प्रति जुगुप्सा एवं परसंसर्ग का अभाव, सत्त्वशुद्धि, सौमनस्य, एकाग्रता, इन्द्रियजय तथा आत्मसाक्षात्कार की योग्यता, अपूर्व सुखानुभूति एवं अशुद्धिक्षय के फलस्वरूप कायसिद्धि, इन्द्रियसिद्धि, इष्टदेव का सान्निध्यलाभ तथा समाधिसिद्धि आदि की प्राप्ति का निर्देश किया गया है।
१. उत्तराध्ययनसूत्र, २६/१२; मूलाचार, ४: तत्त्वार्थसूत्र, ७/१२; रत्नकरण्डश्रावकाचार, ७२, ज्ञानार्णव, ८/२ (१)
क) जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् |- पातञ्जलयोगसूत्र. २/५
ख) दिक्कालाधनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।-द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, २१/२ ३. एते च इच्छाप्रवृत्तिस्थैर्यसिद्धिभेदा इति वक्ष्यति। - योगदृष्टिसमुच्चय, स्वो०.१० २१
योगदृष्टिसमुच्चय, २१: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २१/७ तारायां तु बोधो गोमयाग्निकणसदृशः, अयमप्येवंकल्प एव, तत्त्वतो विशिष्टस्थितिवीर्यविकलत्वात्. अतोऽपि प्रयोगकाले स्मृतिपाटवासिद्धेः तदभावे प्रयोगवैकल्यात्. ततस्तथा तत्कार्याभावादिति। -योगदृष्टिसमुच्चय, स्वो० वृ०. गा० १५ . तारायां तु मनाक्स्पष्ट नियमश्च तथाविधः । अनुद्वेगो हितारम्भे जिज्ञासा तत्त्वगोचरा ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, ४१; द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/१
योगदृष्टिसमुच्चय, ४२-४८; द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/६-६ ८. पातञ्जलयोगसूत्र. २/४०-४५ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/३.४
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