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आध्यात्मिक विकासक्रम
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जैनयोग-परम्परा किसी आसन विशेष का प्रयोग करने में आग्रह नहीं रखती, इसलिए आ० शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र ने जिस-जिस आसन का प्रयोग करने से मन स्थिर होता है, उसी-उसी का साधन रूप में प्रयोग अपेक्षित बताया है। .
जैनागमों में वीरासन, उत्कटिकासन, दण्डासन, पदमासन, गोदोहिका आसन, हंसासन, पर्यंकासन, अर्द्धपर्यंकासन, लंगडासन आदि अनेक आसनों के उल्लेख यत्र तत्र प्राप्त होते हैं। आ० हरिभद्र ने 'स्थान पद से पदमासनादि का ग्रहण किया है। 'आदि' शब्द से यह सूचित होता है कि उन्हें अन्य आसन भी मान्य थे। आ० शुभचन्द्र ने पर्यंकासन, अर्धपर्यंकासन, वज्रासन, वीरासन, सुखपूर्व आसन (सुखासन) और अरविन्दपूर्व आसन (पद्मासन) तथा कायोत्सर्ग आदि को ध्यान के लिए अभीष्ट माना है। आ० हेमचन्द्र ने पर्यंकासन, वज्रासन, पद्मासन, भद्रासन, दण्डासन, उत्कटिकासन, गोदोहिकासन, कायोत्सर्गासन आदि आसनों का नामोल्लेख करने के पश्चात क्रमशः उनका लक्षण भी प्रतिपादित किया है। योगशास्त्र की टीका में उन्होंने आम्रकुब्जिकासन, क्रौंचासन, हंसासन, अश्वासन, गजासन, लगुड़शायित्वासन, समसंस्थान आसन, दुर्योधनासन, दण्डपदमासन, स्वस्तिकासन, सोपाश्रयासन आदि का उल्लेख भी किया है। उपा० यशोविजय ने 'स्थान' शब्द से 'आसन' अर्थ ग्रहण करते हुए कायोत्सर्ग, पर्यंकबन्ध तथा पद्मासन का नामोल्लेख किया है तथा आदि शब्द से समस्त शास्त्रों में प्रसिद्ध आसनों के लिए अपनी स्वीकृति प्रकट की है।
४. दीप्रादृष्टि और प्राणायाम
अभ्यास बढ़ने से राग-द्वेष रूपी कर्ममल अपेक्षाकृत कम होते जाते हैं और साधक के चित्तगत परिणाम पूर्वोक्त तीन दृष्टियों की अपेक्षा अधिक निर्मल हो जाते हैं। अतः इस 'दीप्रा' नामक चतुर्थ दृष्टि में होने वाला बोध-प्रकाश भी पहले की अपेक्षा विशिष्ट कोटि का होता है, जिसे आ० हरिभद्रसूरि ने दीपक के प्रकाश के तुल्य माना है। यद्यपि इस दृष्टि तक मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान ही होता है तथापि अत्यन्त अल्प मिथ्यात्व होने से यह उसकी अन्तिम पराकाष्ठा मानी गई है। चूंकि इसमें मिथ्यात्व का कुछ अंश विद्यमान रहता है, इसलिए जीव में हेय-उपादेय का विवेक जागृत नहीं हो पाता। परन्तु राग-द्वेष के कम होने से आत्मदशा में निर्मलता अपेक्षाकृत अधिक बढ़ने लगती है। बोध स्पष्ट होने से आचरण भी शुद्ध और पवित्र बनता जाता है। इस दृष्टि में साधक 'प्राणायाम' नामक चतुर्थ योगांग का अभ्यास करता
ॐ
१. येन येन सुखासीना विदध्युनिश्चलं मनः।
तत्तदेव विधेयं स्यान्मुनिभिर्बन्धुरासनम्।। - ज्ञानार्णव, २६/११ जायते येन येनेह विहितेन स्थिरं मनः । तत्तदेव विधातथ्यमासनं ध्यानसाधनम्।। - योगशास्त्र, ४/१३४ . स्थानांगसूत्र, ३६६, ४६०; आचारांगसूत्र, ६/३/११; सूत्रकृतांगसूत्र, २,२: भगवतीसूत्र, १/११; प्रश्नव्याकरण, १६१; उत्तराध्ययनसूत्र, ३०/२७; ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र, १/१: मूलाराधना ३/२२३-२२४ तथा उस पर विजयोदया वृत्ति; बृहदकल्पभाष्य, ५४५३, ५४५४ तथा वृत्ति उपासकाध्ययन, ३६/७३२ स्थानात् - पद्मासनादेः .......1- योगशतक, गा०६४ पर स्वो० वृ० पर्यकमर्धपर्यकं यजं वीरासनं तथा। सुखारविन्दपूर्वे च कायोत्सर्गश्च संमतः।। - ज्ञानार्णव, २६/१० योगशास्त्र,४/१२४-१३३
योगशास्त्र, ४/१३३ पर स्यो० वृ० ८. स्थीयतेऽनेनेति स्थानं-आसनविशेषरूपं कायोत्सर्गपर्यकबन्धपद्मासनादि सकलशास्त्रप्रसिद्धम्।
- योगविंशिका, गा०२ पर यशो० वृ० ६. दीप्रायां त्वेष दीपप्रभातुल्यो विशिष्टतर उक्तबोधत्रयात्......इति प्रथमगुणस्थानकप्रकर्ष एतावानिति समयविदः ।
- योगदृष्टिसमुच्चय, स्वो० वृ० गा० १५
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