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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
प्रणिधान, लौकिक जीवन में स्थिरता, समस्त कर्मफलों का नाश, साधना में निर्बाध प्रगति एवं अभ्युदय की प्राप्ति अनायास हो जाती है।' पातञ्जलयोगसूत्र में भी आसनसिद्धि के परिणामस्वरूप भूख-प्यास, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से पीड़ा तथा बाधाओं से निवृत्ति की बात कही गई है।
'आसन' साधना-पद्धति का वह अंग है जो शरीर, मन और मस्तिष्क को संतुलित रखने में सहायक है । परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिए जप, तप, प्राणायाम, धारणा, ध्यान, समाधि आदि जिन साधनों का अभ्यास किया जाता है उनमें आसन पूर्वभूमिका' के रूप में उपयोगी माना जाता है। उक्त योगसाधनों का अभ्यास प्रारम्भ करने से पूर्व 'आसन' की स्थिरता की अनिवार्यता प्रायः सभी योग-पद्धतियों स्वीकृत है। आ० हरिभद्र, शुभचन्द्र हेमचन्द्र तथा उपा० यशोविजय' ने भी शारीरिक स्थिरता एवं ध्यान की सिद्धि हेतु आसन की महत्ता को स्वीकार किया है।
योग-साधना क्रम में बैठने के विशेष ढंग को 'आसन' कहा गया है। वैसे तो बैठने के असंख्य ढंग हैं। प्रत्येक व्यक्ति के बैठने के अलग-अलग समय में अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग ढंग हो सकते हैं। अतः आसनों की संख्या भी असंख्य है । परन्तु महर्षि पतञ्जलि ने न किसी आसन विशेष का नामोल्लेख किया है और न ही आसनों के भेदों का वर्णन किया है। उन्होंने बैठने का तरीका साधक की इच्छा पर ही छोड़ दिया है। आसन की परिभाषा में उन्होंने इतना ही कहा है कि जिससे स्थिरतापूर्वक सुख से बैठा जा सके, वही आसन है।" भाष्यकार व्यास ने पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, दण्डासन, सोपाश्रयासन, पर्यंकासन, क्रौंचनिषदनासन, हस्तिनिषदनासन, उष्ट्रनिषदनासन, समसंस्थानासन, स्थिरसुखासन तथा यथासुखासन - इन १३ आसनों के नाम गिनाकर आदि पद से अन्य आसनों की ओर भी संकेत किया है ।
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जैनयोग- परम्परा में भी आसन को किसी न किसी रूप में स्वीकार कर उसका वर्णन किया गया है। वहाँ आसन के लिए 'स्थान' शब्द का प्रयोग भी मिलता है। आ० हरिभद्र तथा उपा० यशोविजय ने 'स्थान' शब्द का प्रयोग किया है। 'आसन' का अर्थ है - 'गति की निवृत्ति' । स्थिरता आसन का महत्वपूर्ण स्वरूप है, जिसे खड़े रहकर, बैठकर और लेटकर तीनों स्थितियों में किया जा सकता है। इस दृष्टि से 'आसन' की अपेक्षा 'स्थान' शब्द अधिक व्यापक है ।
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योगदृष्टिसमुच्चय, ४६ - ५६: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/१०-१५
ततो द्वन्द्वानभिघातः । - पातञ्जलयोगसूत्र. २/४८
ठाणा कायनिरोहो तक्कारीसु बहुमानभावो य ।
दंसा य अगणणम्मि वि वीरियजोगो य इट्ठफलो ।। योगशतक, ६४
अथासनजयं योगी करोतु विजितेन्द्रियः ।
मनागपि न खिद्यन्ते समाधौ सुस्थिरासनाः । । आसनाभ्यासवैकल्याद्वपुः स्थैर्यं न विद्यते । खिद्यन्ते त्वंगवैकल्यात् समाधिसमये ध्रुवम् ।।
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६. अध्यात्मसार, ५/१५/८०-८२; ज्ञानसार, ३०/६-८
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स्थिरसुखमासनम् । - पातञ्जलयोगसूत्र, २/४६
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तद्यथा पद्मासनं वीरासनं भद्रासनं स्वस्तिकं दंडासनं सोपाश्रयं पर्यङ्कं क्रौंचनिषदनं हस्तिनिषदनमुष्ट्रनिषदनं समसंस्थानं स्थिरसुखं यथासुखं चेत्येवमादीनि । - व्यासभाष्य, पृ० २६६ योगविंशिका, २
१०. योगविंशिका, गा० २ पर यशोविजयवृत्ति
वातातपतुषाराद्यैर्जन्तुजातैरनेकशः ।
कृतासनजयो योगी खेदितोऽपि न खिद्यते ।। - ज्ञानार्णव, २६ / ३०-३२
योगशास्त्र, ४ / १२३
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