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आध्यात्मिक विकासक्रम
१४. अयोगिकेवलि (अयोगकेवली या अयोगिजिन) गुणस्थान'
तेरहवें गुणस्थान के अन्त में जीव मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता हुआ अवशिष्ट चार अघातीकर्मों को भी क्षीण करने के लिए ध्यान रूपी अग्नि का आश्रय लेता है और मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों को निरुद्ध करता हुआ 'अयोगकेवली' नामक चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है। जैन शास्त्रों में इसे अयोगिकेवलि या अयोगिजिन' गुणस्थान भी कहा गया है। यह अवस्था आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा अथवा चरमावस्था तथा अन्तिम गुणस्थान है। इस गुणस्थान में जीव समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति नामक उत्कृष्टतम शुक्लध्यान के द्वारा सुमेरुपर्वत की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त कर अन्त में देह का त्याग कर सिद्धावस्था को प्राप्त होता है। यही अवस्था निर्गुण ब्रह्म, पूर्णानन्द, सच्चिदानन्द, परमात्मपद, स्वरूपसिद्धि, मोक्ष, कैवल्य और निर्वाण की मानी जाती है ।४
उपर्युक्त चौदह गुणस्थानों के माध्यम से जैन परम्परा में आत्मा की अविकसित अवस्था से लेकर विकास की ओर बढ़ते हुए अन्त में पूर्णता की प्राप्ति तक की अवस्थाओं की संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत की गई है। इनके विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि किस प्रकार आत्मा एक-एक सोपान पर आरूढ़ होता हुआ क्रमशः मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। सम्यक्त्व से ही जैन- परम्परा में आध्यात्मिक उन्नति का प्रारम्भ माना गया है। सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग्श्रद्धा से ही जीव (अशुभ) पापकर्मों की निवृत्ति की ओर अपना प्रयास शुरू करता है। पापकर्मों की निवृत्ति से अप्रमत्तता आती है। अप्रमत्तता से क्रमशः कषायों की मुक्ति होती है। कषाय मुक्ति से कर्मों का निरोध होता है। इस प्रकार शनैः-शनैः प्रयत्न करता हुआ जीव क्रमशः समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्षावस्था अर्थात् स्वरूपावस्था को प्राप्त करता है। अतः इन गुणस्थानों को आत्मविकास के क्रमिक सोपान कहना अनुपयुक्त न होगा ।
(ख) आत्मा की तीन अवस्थाएँ
मिथ्यादर्शन युक्त अज्ञानी जीव की प्रारम्भिक अवस्था से लेकर आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति तक की सम्पूर्ण यात्रा में आने वाली जिन अवस्थाओं का चौदह गुणस्थानों के रूप में वर्णन किया गया है, वे ही संक्षिप्त रूप में आत्मा की तीन अवस्थाओं के नाम से भी चित्रित की गई हैं। ये तीन अवस्थाएँ हैं बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । पहले तीन गुणस्थान, जो अज्ञानावस्था को सूचित करते हैं, 'बहिरात्मा' के नाम से वर्णित हैं । चतुर्थ गुणस्थान में जब जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है तो उसके लिए आत्मोन्नति / अध्यात्मोन्नति का मार्ग खुल जाता है। अतः जीव अपना पुरुषार्थ प्रारम्भ कर अपनी योग्यता और पात्रता में क्रमशः वृद्धि करने लगता है। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक जीव का प्रयास जारी रहता है। जीव के इस सम्पूर्ण अभ्यासक्रम को 'अन्तरात्मा' कहा गया है। उन्नति करता हुआ जीव अन्त में सर्वोपरि मंजिल को प्राप्त करता है। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान को पूर्णता, पूर्णावस्था, चरमावस्था या सिद्धावस्था कहा जाता है, जिसका यहाँ 'परमात्मा' के नाम से वर्णन किया गया है। इन्हें क्रमशः अविकास, विकास और पूर्णता की अवस्था भी कहा जाता है। इनके लिए
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षट्खण्डागम, १/१/२२: गोम्मटसार, (जीवकाण्ड), ६५: गुणस्थानक्रमारोह, १०३. १०४ प्राकृतपञ्चसग्रह, १/१००: बृहद्रव्यसंग्रहटीका, १३ पृ० ४३: योगशास्त्र, स्वो० वृ०, १/१६
प्राकृतपञ्चसंग्रह, १/१००, धवला, पुस्तक, १, पृ० २८०: बृहद्रव्यसंग्रहटीका, १३ पृ० ४३
पञ्चसंग्रह, मलयगिरिवृत्ति, १/१५ पृ० ३२ षट्खण्डागम, १/१/२२ एवं धवलाटीका, पृ० २२३
दर्शन और चिन्तन, पृ० २७५
मोक्षप्राभृत् ४: समाधितन्त्र, ४; परमात्मप्रकाश, १/११ : बृहद्रव्यसंग्रह, टीका, १४ पृ० ४६: कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा १६२ : ज्ञानार्णव, २६/५ योगशास्त्र, १२ / ७: अध्यात्मसार, ७/२०, २१: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २०/१७ १८ अध्यात्ममतपरीक्षा, १२५ पर स्वो० वृ० पृ० ३३६ ४०
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