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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
१.
(ङ) दशविध धर्म
जैनाचार्यों ने श्रमण की संयम-साधना को स्थिरता प्रदान करने एवं आत्मविकास हेतु दशविध धर्मों का उल्लेख किया है, जिन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने 'उत्तमधर्म कहा है। इस विशेषण के लगाने का एक मुख्य अभिप्राय है - इन धर्मों का विशिष्ट भाव से आचरण करना। आचार्य उमास्वाति के अनुसार उत्तमगुणों से युक्त ये दशविध धर्म अनगार साधु में प्रकर्षतया पाए जाते हैं। ये दशधर्म इस प्रकार हैं -
क्षमा क्रोध का त्याग करना, समभाव रखना। मार्दव मान-कषाय का निग्रह करना, नम्रता धारण करना। आर्जव कपटभाव न रखना, सरलभाव से रहना। शौच लोभ-कषाय का त्याग। सत्य कष्ट पड़ने पर भी असत्य भाषण न करना। संयम छ: काय के जीवों की रक्षा करना, मन, वचन और काय को वश में करना।
१२ प्रकार के तप का आचरण करना तथा अज्ञानतप का त्याग करना। त्याग भाव-दोषों का परित्याग। अकिंचन्य शरीर और संयमोपकरण में भी ममत्वभाव न रखना। ब्रह्मचर्य कामोत्तेजक वस्तुओं का त्याग करते हुए शीलव्रत का पालन करना। वस्तुतः उक्त दशधर्मों का व्रतों एवं समिति, गुप्ति आदि के अन्तर्गत समावेश हो जाता है, तथापि समिति, गुप्ति और महाव्रतों में दोष न लगे, इसलिए इनका पृथक कथन किया गया है। इन दशविध उत्तम धर्मों के पालन से पूर्वसंचित राग-द्वेष, मोहादि का अल्पकाल में ही उपशमन हो जाता है तथा अहंकार, परीषह, कषाय का भी भेदन हो जाता है।
इसप्रकार ये दशविध धर्म बाह्याचरण की अपेक्षा आभ्यंतर परिमाणों एवं भावों की शद्धता पर अत्यधिक बल देते हैं, जो योग-साधना में भी अपेक्षित हैं । अतः योग-साधना की दृष्टि से इनका महत्वपूर्ण स्थान है।
तप
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(च) परीषहजय
परीषह शब्द अन्वर्थ है। परिषोते इति परीषहाः' अर्थात् जो सहन करने योग्य हैं, वे परीषह कहलाते हैं। साधना के समय साधक के समक्ष अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जिन्हें 'परीषह कहा जाता है।
साधना-मार्ग में उपस्थित विघ्नों को पार किये बिना जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह पुनः विघ्नों के उपस्थित होने पर नष्ट हो जाता है। इसलिए जैन-साधना-पद्धति में मुनि को यथाशक्ति दुःख सहन करने अथवा विघ्नों को झेलने की सामर्थ्य उत्पन्न कराने के लिए परीषहों पर विजय प्राप्त करने का विधान है। जैनशास्त्रों में कहा गया है कि मोक्ष-मार्ग से च्युत (पतित) न होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए परीषहों को सहना आवश्यक है। परीषहों को सहन किये बिना न तो आत्मस्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है और न ही चित्त को स्थिर किया जा सकता है। परिणामस्वरूप साधक ध्यान करने में भी समर्थ नहीं हो पाता।
१. स्थानांगसूत्र, १०/१४; समवायांगसूत्र, १०/१; विंशतिविंशिका ११/२ २. उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः। - तत्त्वार्थसूत्र. ६/६
इत्येष दशविधोऽनगारधर्मः उत्तमगुणप्रकर्षयुक्तो भवति। - तत्त्वार्थाधिगमभाष्य. ६/६. पृ० ३८४ ४. तत्त्वार्थसूत्र. ६/८
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