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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
उपशम हो जाने से कर्मों की निर्जरा का प्रारम्भ होता है। इस अवस्था में दर्शनमोहनीयकर्म भी शिथिल हो जाते हैं। अतः साधक आंशिक रूप से व्रतों का पालन करता है। अर्थात् जीव के परिणाम अणुव्रतों को धारण करने के योग्य हो जाते हैं। इसलिए शास्त्रों में पंचम गुणस्थानवर्ती जीव को विरताविरत, देशविरति अथवा संयतासंयत कहा गया है। ६. सर्वविरति-प्रमत्तसंयत गुणस्थान __ छठे गुणस्थान में जीव देशविरत से सर्वविरत हो जाता है। वह घर छोड़कर मुनि बन जाता है तथा अणुव्रतों के स्थान पर महाव्रतों का पालन करने लगता है। दूसरे शब्दों में वह पूर्णरूपेण सम्यकचारित्र का पालन करना प्रारम्भ कर देता है। ___चूंकि इस गुणस्थान में जीव संयमी होते हुए भी प्रमादी होता है इसलिए इसे 'प्रमत्तसंयत गुणस्थान' के नाम से भी अभिहित किया गया है। साधक अपनी आध्यात्मिक परिस्थिति के अनुसार इस गुणस्थान से नीचे भी गिर सकता है और ऊपर भी चढ़ सकता है। जब साधक ‘एक समय' के पश्चात् उक्त अवस्था से नीचे गिरता है, तब वह अविरत बन जाता है अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान में पहुँच जाता है और यदि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् पतित होता है तो वह पंचमगुणस्थान में पहुंचकर देशविरति बन जाता है। अन्तर्मुहूर्त का समय बिना किसी घटना के व्यतीत हो जाने पर साधक सातवीं अवस्था में पहुँच जाता है। ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान" __आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ते-बढ़ते साधक 'अप्रमत्तसंयत' नामक सप्तम गुणस्थान पर आरोहण करता है। जब षष्ठ गुणस्थानवी जीव के संज्वलन और नोकषायों का मंद उदय होता है, तब वह इन्द्रिय-विषय, विकथा, निद्रादि रूप सर्व प्रमादों से रहित होकर प्रमादहीन संयम का पालन करता है। इसीलिए इस अवस्था को 'अप्रमत्तगुणस्थान' नाम दिया गया है। यहाँ यह विचारणीय है कि सप्तम् गुणस्थानवर्ती साधक को प्रमादजन्य वासनाएँ एकदम नहीं छोड़ देतीं। वे यदा-कदा उसे परेशान करती रहती हैं। अतः जहाँ एक ओर अप्रमादजन्य उत्कट सुख का अनुभव आत्मा को उस स्थिति में स्थित रहने के लिए उत्तेजित करता है वहाँ दूसरी ओर प्रमादजन्य वासनाएँ उसे अपनी ओर खींचती हैं। ऐसी स्थिति में विकासगामी आत्मा की प्रमादजन्य वासनाएँ कभी-कभी उदित हो जाती हैं। परिणामस्वरूप कभी साध क प्रमादावस्था में विद्यमान रहता है तो कभी अप्रमादावस्था में। इसप्रकार उसकी नाव छठे और सातवें गुणस्थान के बीच डोलती रहती है।
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१. Jain Ethics, p. 214. २. तत्त्वार्थसार,२/२२
षट्खण्डागम, १/१/१४; गोम्मटसार(जीवकाण्ड), ३२-३३; गुणस्थानक्रमारोह, २१, प्राकृतपञ्चसंग्रह, १/१४: बृहद्रव्यसंग्रहटीका,१३ पृ० ४२: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/१६ तत्त्वार्थसार, २/२३: समवायांगसूत्र, व्याख्या, पृ० ४२ जैनधर्मदर्शन, पृ०४६७ Jain Philosophy, p. 211 षट्खण्डागम, १/१/१५ गोम्मटसार(जीवकाण्ड), ५०-५४; गुणस्थानक्रमारोह, २२, प्राकृतपञ्चसंग्रह. १/१६: बृहदव्यसंग्रहटीका,१३, पृ० ४२, योगशास्त्र स्वो० वृ०, १/१६ गोम्मटसार(जीवकाण्ड), ३४: प्राकृतपंचसंग्रह, १/३३
जैनधर्म, कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ० २३६ १०. दर्शन और चिंतन, पृ० २७२
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