________________
182
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
जैन आचार का प्रमुख आधार भी कर्म-सिद्धान्त ही है। आचार के लिए कर्मसिद्धान्त उतना ही आवश्यक है जितना विज्ञान का कार्य-कारण-सिद्धान्त । कर्म मनुष्य को भाग्यवादी एवं निराश बनने से रोकता है, और उसे शुभकर्म की ओर प्रेरित करता है। शुभ धार्मिक क्रियाओं के आचरण से मनुष्य दुःख तथा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति पाने में सफल होता है। इस दृष्टि से कर्म-सिद्धान्त का ज्ञान शुद्ध आत्मा की उपलब्धि में सहायक है। ___ पातञ्जलयोगसूत्र के अनुसार संसार के समस्त बन्धनों का एक मात्र कारण अविद्या है। अविद्या के कारण ही इस जगत में प्राणी मात्र का जन्म-मरण हुआ करता है। अविद्या ही समस्त क्लेशों की जननी है। अविद्या के कारण ही प्राणी कर्म-चक्र में फंसता है। कर्म-चक्र का नियमन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार होता है।
जीव और कर्म
आ० हरिभद्र के अनुसार कर्म-पुद्गल को आकृष्ट करना, उनसे सम्बद्ध होना आत्मा की योग्यता है। आत्मा और पुद्गलों के संयोग की परम्परा भी प्रवाह रूप में अनादि है, क्योंकि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध स्वर्ण तथा मृत्तिका-पिण्ड के सम्बन्ध के समान अनादि है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादिकालीन होने पर भी दोनों स्वभाव से सर्वथा एक दूसरे से भिन्न-भिन्न हैं। ___ जीव यथार्थतः शुद्ध वस्त्र के समान निर्मल एवं निर्दोष है, परन्तु कर्मों के संयोग से उसका यथार्थ स्वरूप आच्छादित हो जाता है और वह बन्धन में पड़ जाता है। जैसे ही कर्मों का आवरण हट जाता है सांसारिक जीव मुक्त हो जाता है। इस प्रकार जीव की संसारावस्था और मुक्तावस्था आत्मा और कर्मपुदगलों के स्वभाव पर आश्रित है। कर्मों के भेद __ योगसूत्र के अनुसार कर्म चार होते हैं – कृष्ण, शुक्ल, शुक्ल-कृष्ण और अशुक्ल-अकृष्ण । 'कृष्णकर्म' तमोवर्धक होते हैं। केवल दुःख देने से दुरात्माओं के कर्म 'कृष्णकर्म' कहलाते हैं। शुक्लकम' सत्त्ववर्धक होते हैं। स्वाध्याय एवं तप में संलग्न साधकों के वाक् और मनस् द्वारा किए गए पुण्य कर्मों को 'शुक्लकर्म' कहते हैं। दक्षिणा, दानादि कर्म 'शुक्ल-कृष्ण' कहलाते हैं जो अच्छे उद्देश्य से किए जाने पर भी बाह्य साधनों का आश्रय लेने से दूसरे प्राणियों को कुछ न कुछ हानि पहुँचाते ही हैं। चूँकि योगियों के कर्म बाह्य साधनों से संपादित नहीं होते, इसलिए कृष्ण नहीं होते और योगी अपने कर्तृत्व का अभिमान छोड़कर या कर्मों के फल को ईश्वर में समर्पित कर कर्म करते हैं, इसलिए उनके कर्म शुक्ल भी नहीं होते। इस प्रकार उनके कर्म अशक्ल-अकृष्ण हआ करते हैं। पतञ्जलि का उक्त कर्म-विभाजन जैन-परम्परा के लेश्या वर्णन से प्रभावित प्रतीत होता है।
जैनशास्त्रों में कर्म की आठ मूल प्रकृतियों का निर्देश किया गया है जो प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। उनके नाम हैं - १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय,
प्रवचनसार, २/३४ योगशतक, ११ योगशतक, ५७: योगबिन्दु. १६४; पंचाध्यायी, २/५५ योगशतक, ५४ योगबिन्दु.६
पातञ्जलयोगसूत्र,४/७ ७. पंचाध्यायी, २/६६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org