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योग और आचार
४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय । इनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और नाम ये चार घातीकर्म हैं, क्योंकि वे आत्मा के स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं। शेष चार अघातीकर्म कहलाते हैं, क्योंकि वे आत्मा के गुणों का घात नहीं करते ।
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कर्म विपाक
पातञ्जलयोगसूत्र के अनुसार कर्मप्रकृति की विशिष्ट अथवा विविध प्रकार की शक्ति और फल देने में अभिमुखं होने को 'विपाक' कहते हैं। जैनमतानुसार विशिष्ट या नाना प्रकार के पाक का नाम 'विपाक' है। क्रोध, लोभ, मोह आदि कषायों के तीव्र, मन्द आदि रूप भावास्रव के भेद से विशिष्ट पाक का होना 'विपाक' है, अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव लक्षण के निमित्त से उत्पन्न हुआ वैश्य रूप नाना प्रकार का पाक 'विपाक' है।
कर्म विपाक के प्रकार
महर्षि पतञ्जलि के अनुसार शुभाशुभकर्म का फल केवल सुख या दुख की अनुभूति रूप में प्रतीत होता है। देव, मनुष्य, पशु, तिर्यक्, आदि नानाविध योनियों में से उत्कृष्ट अथवा अपकृष्ट योनि को दीर्घकाल अथवा अल्पकाल पर्यन्त धारण करना भी कर्माधीन है, क्योंकि कर्म के मुख्य फल सुख-दुःख के भोगार्थ भोगायतन शरीर की निश्चित काल पर्यन्त स्थिति मानी गई है। इस दृष्टि से पातञ्जलयोगदर्शन में कर्म विपाक के तीन भेद किए गए हैं- जातिविपाक, आयुर्विपाक तथा भोगविपाक । 'जाति' शब्द का अर्थ व्याख्याकारों ने जन्म अथवा देवादि योनि किया है। वस्तुतः देवादि कोटि के शरीरों के पुरुष का औपाधिक सम्बन्ध 'जन्म' है। इस प्रकार के औपाधिक सम्बन्ध की निश्चित काल पर्यन्त स्थिति 'आयु' है । सुख-दुःखात्मक शब्दादि वृत्ति 'भोग' है।
जैन में कर्म प्रकृतियों की संख्या आठ होने से कर्म विपाक के प्रकारों की संख्या भी आठ मानी गई है । उपा० यशोविजय पतञ्जलि द्वारा कर्म विपाक को तीन की संख्या में नियत करने पर आक्षेप करते हुए कहते हैं कि केवल जाति (जन्म) का ही नहीं अपितु मरण का भी विपाक होता है। उनके मत में विपाक रूप जन्म से अभिप्रेत है- गतिनाम, जातिनाम आदि नामकर्मों द्वारा उत्पादित जीव पर्याय । आयु जीवन का पर्याय है जो मनुष्य, नारक, देव, तिर्यंच - चार प्रकार से फलित होता है, इसलिए इन चार गतियों के उत्पादक 'आयुकर्म को भी चार प्रकार का मानना चाहिए। जाति व आयु को छोड़कर शेष छः कर्म के विपाक रूप फल भोग कहे जाते हैं। इसलिए कर्म विपाक भी कर्म प्रकृतियों के आधार पर आठ प्रकार के माने जाने चाहिये ।
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उत्तराध्ययनसूत्र, ३३ / २.३
पंचाध्यायी, २/६६८
वही, २ / ६६६
सत्सु कुशलेषु कर्माशयो विपाकारम्भी भवति ।
.. कर्माशयो विपाकप्ररोही भवति । व्यासभाष्य, पृ० १६५
सर्वार्थसिद्धि ८/२१/३६८
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः । - पातञ्जलयोगसूत्र, २/१३ भोजवृत्ति, पृ० ७३
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पातञ्जलयोगसूत्र, २/१३ पर यशोविजयवृत्ति, पृ० २२-२३ पातञ्जलयोगसूत्र. २/१३ पर यशोविजयवृत्ति, पृ० २३
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