Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 211
________________ आध्यात्मिक विकासक्रम 193 प्रबल रहती है, निर्बल नहीं होती। दर्शनमोह के मंद, मंदतर और मंदतम होने के साथ ही दूसरी शक्ति चारित्रमोह भी तदनुरूप ही हो जाती है। स्वरूपबोध होने पर स्वरूप-लाभ की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसप्रकार गुणस्थान-क्रमारोहण में मोहनीयकर्म का मन्द, मंदतर, मंदतम और क्षय होना मूल आधार है और इसी आधार पर गुणस्थानों का क्रम निर्धारित किया गया है। आ० नेमिचन्द्र के शब्दों में मोह और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति रूप योग गुणस्थानों की उत्पत्ति का मुख्य आधार है। संसार-बन्ध के हेतु मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग कहे गये हैं, जिनका गुण-श्रेणी-आरोहण में संवर (निरोध) हो जाता है। इसलिए कुछ जैनाचार्यों ने संवर के स्वरूप का विशेष परिज्ञान करने के लिए चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया है। प्रथम गुणस्थान (मिथ्यात्व) में बंध के सभी हेतु विद्यमान होते हैं। चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व का, छठे में अविरति का, ७वें में प्रमाद का, १०वें में कषाय का तथा १४वें में योग का अभाव हो जाता है। अतः स्पष्ट है कि गुणस्थान में बन्ध के हेतुओं का क्रमशः नाश होकर उत्तरोत्तर जीव के चारित्र की विशुद्धि होती है। जीव धीरे-धीरे चारित्र का विकास करते हुए निम्नश्रेणी से उच्च श्रेणी की ओर अर्थात् मिथ्यात्व की स्थिति से मोक्ष की ओर प्रयाण करता है। कुछ विद्वानों ने 'गुणस्थानों को एक ऐसे थर्मामीटर' की उपमा दी है, जो आत्मा के विकास एवं मोह की तरतमता का दिग्दर्शन कराता है। इन गुणस्थानों के आधार पर प्रत्येक चिन्तनशील प्राणी यह जान सकता है कि वह विकास के किस चरण पर खड़ा है। जैनशास्त्रों में जीव की विविध अवस्थाओं को जिन १४ भागों/गुणस्थानों में विभाजित किया गया है, उनके नाम इसप्रकार हैं - १. मिथ्यादृष्टि, २. सासादनसम्यग्दृष्टि, ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ४. अविरतसम्यग्दृष्टि, ५. देशविरति (विरताविरत सम्यग्दृष्टि), ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण, ६. अनिवृत्तिबादर, १०. सूक्ष्मसम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगकेवली, १४. अयोगकवली। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है - १. मिथ्यादष्टि गणस्थान जिस अवस्था में दर्शनमोहनीयकर्म की प्रबलता के कारण सम्यक्त्व गुण आवृत्त होने से आत्मा की तत्त्वरुचि प्रकट नहीं हो पाती, सत्य के विरुद्ध या अयथार्थ ही रहती है, उस अवस्था को मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। जिसप्रकार पित्त ज्वर से पीड़ित जीव को मधुर रस अच्छा नहीं लगता, उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि १. ॐ us क) कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता। - समवायांगसूत्र, १४/१ ख) कर्मविशोधिमार्गणां प्रतीत्य-ज्ञानावरणादिकर्मविशुद्धिगवेषणामाश्रित्य चतुर्दशजीवस्थानानि।- समवायांगसूत्रवृत्ति,पत्र २७ गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा। - गोम्मटसार, (जीवकाण्ड), २ तत्त्वार्थसूत्र,८/१ तस्य संवरस्य विभावनार्थं गुणस्थानविभागवचनं क्रियते। - तत्त्वार्थराजवार्तिक, ६/१/१० वही. ६/१/२४ दर्शन और चिन्तन, पृ०२५२ समवायांगसूत्र. २७ षटखण्डागम, १/१/६: प्राकृतपंचसंग्रह, १/३: गोम्मटसार, (जीवकाण्ड), १६; बृहद्रव्यसंग्रह, टीका, १३: पृ० ३६: गुणस्थानक्रमारोह. २-५ षट्खण्डागम. २/१/८०-८१, गोम्मटसार (जीवकाण्ड), १७: गुणस्थानक्रमारोह, ६, प्राकृतपंचसंग्रह, १/६: बृहद्रव्यसंग्रह, टीका, १३ पृ. ३६, योगशास्त्र, स्वो० वृत्ति १/१६ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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