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आध्यात्मिक विकासक्रम
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गुणस्थान और भावों का उल्लेख तो किया है, परन्तु 'ध्यान' प्रधान अपने ग्रन्थ 'ज्ञानार्णव' में ध्यान के अधिकारियों के प्रसंग में गुणस्थान-परम्परा का विशेष ध्यान रखा है। साथ ही आगमोत्तरवर्ती स्वतन्त्र चिन्तकों के मतानुकूल बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा तथा अशुभोपयोग, शुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग का वर्णन भी किया है।
आ० हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में यद्यपि प्राचीन जैनागमों की गणस्थान-परम्परा के अनकल ही विषय का वर्णन किया है, तथापि स्वानुभव के आधार पर मन की चार अवस्थाओं - १. विक्षिप्त, २. यातायात, ३. श्लिष्ट, और ४. सुलीन का निरूपण भी किया है। यह उनकी निजी व स्वतन्त्र कल्पना है। उपा० यशोविजय ने भी गुणस्थान-परम्परा का ही आश्रय लेते हुए हरिभद्र के ग्रन्थों में वर्णित आध्यात्मिक विकास के विविध वर्गीकरण को अधिक स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उनकी यह विशेषता है कि उन्होंने पातञ्जलयोग-परम्परा में वर्णित चित्त की पांच भूमिकाओं का जैन परम्परानुसार वर्णन कर दोनों में साम्य दर्शाने का प्रयास भी किया है। (क) गुणस्थान - अर्थ और स्वरूप
गुण' शब्द से तात्पर्य है - आत्मा की दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप स्वाभाविक विशेषताएँ (शक्तियाँ। 'स्थान' का अर्थ है - इन शक्तियों की शुद्धता की तरतमभावयुक्त अवस्थाएँ। सांसारिक अवस्था में आत्मा के सहज गुण विविध आवरणों से आवृत्त होते हैं। जितनी अधिक मात्रा में आवरणों का क्षय होगा, उतने ही अधिक परिमाण में उनके गुणों में अभिवृद्धि होगी। आवरण जितनी कम मात्रा में क्षीण होंगे, उतनी ही कम मात्रा में उनके गुणों की वृद्धि होगी। इसप्रकार आत्मिक गुणों की शुद्धि के प्रकर्ष या अपकर्ष के असंख्य प्रकार सम्भव हैं। परन्तु जैनाचार्यों ने उन्हें चौदह भागों में विभक्त किया है, जिन्हें 'गुणस्थान' कहा जाता है। आ० नेमिचन्द्र ने जीवों को ही 'गुण' कहा है। विद्वानों के मत में 'गुणस्थान' यह अन्वर्थ संज्ञा है, क्योंकि कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम तथा उदयादि के बिना केवल स्वभाव मात्र की अपेक्षा से होने वाले भाव 'गुण' शब्द से व्यवहृत किये गये हैं | चौदह जीवस्थान इन पांच भावों के आधार पर निष्पन्न हैं, इसलिए जीवस्थान को ही 'गुणस्थान' भी कहा गया है। गोम्मटसार में 'गुणस्थान' के लिए 'जीवसमास' शब्द का प्रयोग भी हआ है।"
गुणस्थान-परम्परा
प्राचीन श्वेताम्बर जैनागमों में कहीं भी 'गुणस्थान' शब्द का उल्लेख नहीं मिलता। केवल समवायांगसूत्र में कर्मविशुद्धि के तारतम्य के आधार पर चौदह जीवट्ठाणों (जीवस्थानों) का व्यवहार हुआ है। समवायांगसूत्र के पश्चात्वर्ती साहित्य में 'जीवस्थान' के स्थान पर 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग करने की परम्परा प्रारम्भ हुई। 'समवायांगसूत्र में वर्णित 'जीवस्थान' को ही कर्मग्रन्थों में 'गुणस्थान' कहा गया है।"
१. क) तत्र गुणः ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाः जीवस्वभावविशेषाः। - कर्मग्रन्थ टीका, भाग २. गा०२ ख) Ilere the word 'virtue does not mean an ordinary moral quality but it stands for the nature of
the soul, L.e. the knowledge, belief and conduct. - Jain Philosophy, 205 जैन धर्म का प्राण, पृ०८७ । गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ७
गोमाटसार (जीवकाण्ड).८: प्राकृतपंचसंग्रह. १/३ ५. गोगटसार (जीवकाण्ड).१०: द्रव्यसंग्रह, १३
कभ्गविसोहिगग्गण पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता। - समवायांगसूत्र, १४/४/६५ समयसार. ५५ प्राकृतपंचसंग्रह. १/३-५ कर्मग्रन्थ ४/१: गोम्मटसार (जीवकाण्ड). २: द्रव्यसंग्रह, १३
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