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अशरण-भावना
संसार-भावना
एकत्व-भावना
अन्यत्व-भावना
- भावना
आस्रव भावना
संवर-भावना
निर्जरा-भावना
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
अनित्य संसार में अनेक कारणों से उत्पन्न दुःखों से आक्रान्त जीव को शरण देने वाला कोई नहीं है। मृत्यु के अनिवार्य चंगुल से उसे कोई नहीं बचा सकता, केवल शुभ धर्म ही शरण दे सकता है, इसप्रकार अशरणता का विचार करते हुए संसार से विरक्त हो जाना ।
सागर में गोते खाते हुए इस आत्मा ने सम्पूर्ण भवों को भोगा है। इसमें से मैं कब छूटूंगा ? यह संसार मेरा नहीं है। मैं मोक्षमय हूँ। इस प्रकार संसार के यथार्थ स्वरूप का चिन्तन |
इस दुर्गम संसार रूप मरुस्थल यह जीव अकेला ही परिभ्रमण करता है, अकेला ही पैदा होता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही जन्म-जन्मान्तर के संचित कर्मों को भोगता है। परलोक की महायात्रा उसे अकेले ही करनी पड़ती है, ऐसा चिन्तन करना ।
आत्मा स्वभाव से शरीरादि से भिन्न है। शरीर से भिन्न आत्मा का बन्धु बान्धव, मित्र आदि से भी कुछ सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार जगत के समस्त पदार्थों व शरीरादि से आत्मा को भिन्न मानते हुए उसका बार-बार चिन्तन करना ।
स्वभाव से मलिन यह शरीर अनेक दुर्गन्धित, अपवित्र अथवा निन्दनीय पदार्थों से बना है। अतः शरीर संबंधी मोह को नष्ट करने के लिए शरीर की अशुचिता का पुनः चिन्तन करना ।
मन, वचन, काय के व्यापार रूप योग को आस्रव कहते हैं, क्योंकि इन्हीं तीन योगों से कर्म आत्मा में प्रविष्ट होते हैं, अर्थात् कर्मों का आस्रव होता है। शुभ एवं अशुभ कर्मास्रव के कारणों का चिन्तन करना । जैसे आस्रव-भावना में कर्मों के आने के कारणों पर विचार किया जाता. है उसीप्रकार संवर-भावना में कर्मों के आगमन को रोकने के उपायों का विचार किया जाता है। आस्रव के निरोध रूप संवर का बार-बार चिन्तन करना ।
पूर्वसंचित कर्मों को नष्ट करना निर्जरा है। जिसका मुख्य हेतु तप है। निर्जरा के हेतुभूत तप तथा उसके परिणाम रूप आत्मा के शुद्ध-निर्मल स्वरूप का चिन्तन करना ।
धर्म-भावना
जो विश्व को पवित्र करता है, व उसे धारण करता है, वह धर्म है । धर्म के स्वरूप और उसकी महिमा का चिन्तन करना ।
लोक-भावना
लोक के स्वरूप तथा उसकी उत्पत्ति एवं विनाश के विषय में चिन्तन करना ।
बोधि- दुर्लभ भावना संसार में भटकते हुए आत्मा को सम्यक् ज्ञान प्राप्त होना दुर्लभ है और यदि सम्यक ज्ञान की प्राप्ति हो भी जाए तो सर्वविरति रूप चारित्र की प्राप्ति कठिन है। इस प्रकार सम्यक्ज्ञान अर्थात् बोधि की दुर्लभता का बार-बार चिन्तन करना ।
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