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योग और आचार
अपरिग्रह - महाव्रत की भावनाएँ"
१.
अपरिग्रह - महाव्रत की सुरक्षा एवं पुष्टि हेतु जैन ग्रन्थों में पांच भावनाओं का निरूपण हुआ है स्पर्शनेन्द्रियविषयराग-द्वेषवर्जन मनोहर स्पर्शनेन्द्रिय विषयों में राग तथा अप्रिय स्पर्शनेन्द्रिय विषयों में द्वेष का त्याग करना ।
२. रसनेन्द्रियविषयराग-द्वेषवर्जन
रसनेन्द्रिय विषयों में (विभिन्न प्रकार के रसों में) राग-द्वेष
घ्राणेन्द्रियविषयराग-द्वेषवर्जन
३.
४. चक्षुरिन्द्रियविषयराग-द्वेषवर्जन
श्रोत्रेन्द्रियविषयराग-द्वेषवर्जन
१.
ર
५.
पतञ्जलि के योगसूत्र में भी अपरिग्रह पांचवें महाव्रत के रूप में स्वीकृत है। भाष्यकार व्यास के अनुसार विषयों के अर्जन, रक्षण और क्षय में संगदोष आदि दोषों को देखते हुए उन्हें अस्वीकार करना अपरिग्रह है ।
४.
यद्यपि जैन परम्परागत पांच महाव्रत पातञ्जलयोगसूत्रोक्त पांच महाव्रतों के सदृश हैं तथापि जैन परम्परा में उनका व्यापक वर्णन प्रस्तुत हुआ है ।
५.
६.
७.
(ख) समिति-गुप्ति (अष्टप्रवचनमाता)
पांच महाव्रतों रूप मूलगुणों की रक्षा एवं विशुद्धि के लिए अशुभभावों की निवृत्ति एवं शुभभावों में सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति अत्यन्त आवश्यक है। इसी उद्देश्य की सिद्धि हेतु जैन शास्त्रों में मूलगुणों के पश्चात् उत्तरगुणों का विवेचन किया गया है। उत्तरगुणों के अन्तर्गत गुप्तियाँ अशुभ भावों से निवृत्ति की तथा समितियाँ शुभ भावों में सम्यक् प्रवृत्ति की द्योतक हैं। इनसे साधु का चरित्र पवित्र होता है, इसलिए इनको सम्यक्चारित्र कहा जाता है। समितियों एवं गुप्तियों का पालन करने वाला साधु ही गुरु-परम्परा से प्राप्त जैनागमों के सूक्ष्म ज्ञान को माता के समान सुरक्षित रखने में समर्थ हो सकता है, इसलिए शास्त्रों में इन्हें 'अष्टप्रवचनमाता' के नाम से सम्बोधित किया गया है । ६
का त्याग करना ।
घ्राणेन्द्रियविषयों में (सुगन्ध - दुर्गन्ध आदि में ) राग-द्वेष का
१. गुप्ति
'गुप्ति' का अर्थ है - गोपन करना, खींचना या दूर करना । इसलिए मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्तियों का निरोध या निग्रह करना 'गुप्ति' का लक्षण बताया गया है। अशुभ भावों की निवृत्ति का अर्थ
त्याग करना ।
चक्षुरिन्द्रियविषयों (चक्षुरिन्द्रियों से देखे जाने वाले विभिन्न प्रकार के रूपों) में रागद्वेष का त्याग करना । श्रोत्रेन्द्रियविषयों (प्रिय-अप्रिय, कोमल-कठोर, सत्य-असत्य वचनों के श्रवण) में रागद्वेष का त्याग करना ।
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३. पिण्डस्स जा विसोही, समिईओ, भावणा तवो दुविहो ।
पडिमा अभिग्गहा विय उत्तरगुणओ वियाणाहि ।। - पंचाशकवृत्ति, १५/३१
एयाओ पंचसमिईओ, चरणस्स य पवत्तणे ।
उत्तराध्ययनसूत्र. २४/२६
योगशास्त्र, १ / ३२, ३३: मूलाराधना, ३४१: तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, ७/३ विषयाणागर्जनरक्षणक्षयसंगहिंसादोषदर्शनादस्वीकरणमपरिग्रहः । - व्यासभाष्य पृ० २७८
गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो ।। ज्ञानार्णव, १८/१६ : योगशास्त्र १/३४
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योगशास्त्र १/४५: उत्तराध्ययनसूत्र. २४/१
(क) पञ्चाहुः समितीस्तिस्त्रो गुप्तीस्त्रियोगनिग्रहात् । - योगशास्त्र, १ / ३५
(ख) सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः । - तत्त्वार्थसूत्र, ६/४
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