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१५. असईपोसं ( असतीपोषण)
इस प्रकार भोगोपभोग परिमाणव्रत के जितने भी अतिचार हैं, चाहे वे भोजन सम्बन्धी हों अथवा कर्म-सम्बन्धी, सभी जीवहत्या के प्रेरक-प्राणघातक होने से श्रावक के लिए त्याज्य हैं।
३. अनर्थदण्डव्रत
श्रावक के लिए निर्धारित व्रतों में तीसरा गुणव्रत 'अनर्थदण्डव्रत' है। आ० उमास्वाति ने अनर्थदण्ड में अर्थ-अनर्थ शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि जिससे उपभोग परिभोग होता हो, वह श्रावक के लिए 'अर्थ' है और इसके विपरीत जिससे उपभोग-परिभोग न होता हो, वह 'अनर्थ' है। आ० हेमचन्द्र के शब्दों में, शरीर आदि के लिए अनिवार्य रूप से की जाने वाली आरम्भ या सावद्य रूप प्रवृत्ति 'अर्थदण्ड' है और जिसमें किसी का भी लाभ न हो तथा जिस पाप से अकारण ही आत्मा दण्डित हो वह 'अनर्थदंड' है। इस व्रत के चार भेद हैं - १. अपध्यान, २. पापोपदेश, ३. हिंसादान और ४. प्रमादाचरित । श्रावक को इन चारों प्रकार के अनर्थदंड से बचना चाहिए।
अनर्थदंडव्रत के अतिचार'
१. कंदर्प
२.
१.
२.
३.
४.
५.
३.
४.
५.
कौत्कुच्य
मौखर्य
संयुक्
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
भाड़ा ग्रहण करने की इच्छा से दुराचारिणी स्त्रियों का पोषण करना ।
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योगशास्त्र, ३ / १०१ - ११३
तत्त्वार्थसूत्र, ७/१६
योगशास्त्र, ३/७४
कामोद्दीपक, विषयवर्धक अशिष्ट वचन बोलना ।
कुत् का अर्थ है - कुत्सित और कुच् का अर्थ है - चेष्टा । विदूषक या भांड के सदृश शारीरिक कुचेष्टाएँ करना ।
मूर्खता से बिना सोचे विचारे धृष्टतापूर्वक वचन बोलना ।
आत्मा को दुर्गति का अधिकारी बनाने वाले ऊखल, मूसल, हल आदि उपकरणों को जोड़कर रखना । जैसे ऊखल के साथ मूसल, हल के साथ फाल, धनुष के साथ बाण आदि ।
उपर्युक्त गुणव्रतों में 'दिव्रत' के पालन का उद्देश्य मोह पर नियन्त्रण पाना और 'भोगोपभोग परिमाणव्रत का उद्देश्य लोभ पर विजय पाना तथा 'अनर्थदण्डव्रत' का उद्देश्य लोभ, मोहादि किसी विशेष भाव का नियमन है, किन्तु हिंसा के कुछ अन्य प्रकार, जिन्हें प्रायः लोग हिंसा में नहीं गिनते, उनसे बचना है। उक्त तीनों व्रतों में से 'दिव्रत' नामक गुणव्रत को पतञ्जलि द्वारा नियमों के अन्तर्गत परिगणित संतोष के. पर्याप्त निकट देखा जा सकता है।
उपभोग
परिभोगातिरेकता उपभोग और परिभोग की वस्तुओं को आवश्यकता से अधिक एकत्रित
करना ।
श्रावकप्रज्ञप्ति, २८६: योगशास्त्र, ३ / ७३
श्रावकप्रज्ञप्ति २६१: योगशास्त्र, ३/११५
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