________________
166
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
(ङ) सल्लेखना
'सल्लेखना' जीवन के अन्तिम समय में लिया जाने वाला भाव है,' जो श्रावक एवं श्रमण दोनों की आत्मा एवं शरीर को समान रूप से शुद्ध करता है। सम्यक रूप से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना ‘सल्लेखना' कहलाता है। दूसरे शब्दों में बाहरी शरीर एवं भीतरी कषायों का, उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को न्यून करते हुए सम्यक् प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना 'सल्लेखना' है। - गृहस्थ के समान भिक्षु के लिए भी इसका विधान किया गया है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जिस समय भिक्षु को यह प्रतीत होने लगे कि वह आचार-धर्म का पालन करने में असमर्थ है, उसी समय उसे संकल्पपूर्वक आहार-त्याग करते हुए कषायों को क्षीण करने का व्रत ले लेना चाहिये। यही जैन शास्त्रों की परिभाषा में 'सल्लेखना' है।
आ० हेमचन्द्र के मतानुसार श्रावक को सल्लेखना व्रत के लिए अरिहन्तों के जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान अथवा निर्वाण-कल्याणक की पवित्र भूमि पर जाना चाहिये। यदि कल्याणभूमि निकट न हो तो किसी घर, उपाश्रय, वन या जीव-जन्तु से रहित एकान्त, शांत भूमि में सल्लेखना करनी चाहिये। सल्लेखना व्रत के अतिचार
१. इहालोकाशंसा प्रयोग लौकिक सुख की प्राप्ति की इच्छा। २. परलोकाशंसा प्रयोग परलोक में स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति की इच्छा। ३. जीविताशंसा प्रयोग अधिक काल तक जीने की इच्छा। ४. मरणाशंसा प्रयोग सल्लेखना की कठिनाईयाँ सहन न होने पर जल्दी मरने की
इच्छा करना। ५. भोगाशंसा प्रयोग सल्लेखना के फलस्वरूप काम-भोगादि की अभिलाषा करना। उक्त व्रत में सफलता प्राप्त करने हेतु साधक को अपनी वासनाओं एवं तृष्णाओं पर पूर्ण विजय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
सल्लेखना और आत्महत्या ___ सल्लेखना का सम्बन्ध मृत्यु की अवस्था से संबंधित है, इसलिए कुछ विद्वान् सल्लेखना, को एक प्रकार की आत्महत्या मानते हैं। परन्तु उनकी यह धारणा अनुचित है क्योंकि सल्लेखना का मूल आधार आत्मा और शरीर के पार्थक्य की दृढ़ भावना है। सल्लेखना शरीर के व्यर्थ हो जाने पर उसके प्रति राग छोड़ने की एक प्रक्रिया है। आत्महत्या और सल्लेखना में निम्नलिखित भेद द्रष्टव्य हैं -
___ मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता।- तत्त्वार्थसूत्र, ७/१७ २. न इमं सव्वेसु भिक्खसु. न इमं सव्वेसुगारिसु। - उत्तराध्ययनसूत्र, ५/१६
सर्वार्थसिद्धि, ७/२२/७०५ श्रावकप्रज्ञप्ति, ३७८ पर स्वोपज्ञवृत्ति; योगशास्त्र, ३/१५७ पर स्वोपज्ञवृत्ति आचारांगसूत्र, १/८/६/१०५: योगशास्त्र, ३/१४८ जन्म-दीक्षा-ज्ञान-मोक्षस्थानेषु श्रीमदर्हताम्। तदभावे गृहेऽरण्ये, स्थण्डिले जन्तुवर्जिते।।- योगशास्त्र, ३/१४६
श्रावकप्रज्ञप्ति, ३८५ ७. The Heart of Jainism, p. 168
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org