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की आत्मा क्रोधादि कषायों से प्रभावित नहीं होती। उनकी आत्मा शांत व उदात्त प्रकृति की होने से उनकी बुद्धि शुभ अर्थात् पुण्यात्मक कार्यों में लगी रहती है, और उन्हें विशेष प्रकार के गुणों की प्राप्ति होती है । ' जहाँ भवाभिनन्दी जीव सांसारिक कामभोगों में आसक्त रहता है, वहाँ अपुनर्बन्धक जीव मुक्ति को ही मनोरम रमणी की भांति जानकर उसको पाने के लिए व्याकुल व सचेष्ट रहता है। मार्गानुसारी जीव प्रायः तात्त्विक चिन्तन व तत्त्वचर्चा में संलग्न रहता है। आत्मा को कर्मबन्धन से मुक्त कराने के लिए गतिशील रहता है और तदनुरूप सम्यक् आचरण भी करता है।
अपुनर्बन्धक की द्विविध सम्भावित स्थिति
एक बार अपुनर्बन्धक अवस्था प्राप्त हो जाने पर जब जीव ग्रन्थिभेद की ओर अग्रसर होता है, तब वह मार्गाभिमुख एवं मार्गपतित इन दो विशिष्ट अवस्थाओं से भी गुजरता है। मार्गाभिमुख और मार्गपतित • इन दोनों अवस्थाओं की व्याख्या हरिभद्रसूरि ने इस प्रकार की है-सीधी नली में प्रवेश करने पर सर्प जिस तरह वक्रता छोड़कर सीधा हो जाता है, उसी प्रकार चित्त की अवक्रं अथवा सरल प्रवृत्ति ही मार्ग है। अर्थात् ऐसी स्थिति आध्यात्मिक गुण प्राप्त करने में उपकारक होती है जो जीव इस स्थिति की ओर अभिमुखं तो होता है, परन्तु उसे अभी इस स्थिति की प्राप्ति न हुई हो, वह मार्गाभिमुख, और जिसको वह स्थिति प्राप्त हो गई है, वह मार्गपतित कहलाता है।
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२. भिन्न ग्रन्थि या सम्यग्दृष्टि (योग का द्वितीय अधिकारी)
अपुनर्बन्धक से ऊपर की स्थिति 'सम्यग्दृष्टि की है। यह अपुनर्बन्धक की तुलना में योग का श्रेष्ठ अधिकारी है। अपुनर्बन्धक जीव अपने सद्गुणों का विकास करते-करते एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जब उसमें रहने वाला अल्प मिथ्यात्व भी समाप्त हो जाता है, और साधक का वास्तविक आत्म-विकास प्रारम्भ हो जाता है। आत्म-विकास में मुख्य बाधक मोह और रागादि की ग्रन्थि है। अतः राग-द्वेष की उस कर्कश, दृढ़ और रेशम की गांठ के समान दुर्भेद्य ग्रन्थि को काटना आवश्यक है। सघन राग-द्वेष से अत्यन्त
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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
- योगबिन्दु, १६३
क्रोधाद्यबाधितः शान्तः उदात्तस्तु महाशयः । शुभानुबन्धिपुण्याच्च विशिष्टमतिसंगतः ।। ऊहतेऽयमतः प्रायो, भवबीजादिगोचरम् । कान्तादिगतगेयादि, तथा भोगीव सुन्दरम्।। वही १९४ एवमूडप्रधानस्य प्रायो मार्गानुसारिणः । एतद्वियोगविषयोऽप्येष सम्यक् प्रवर्तते ।।
वही, १६६
(क) यतो ललितविस्तरायां मार्गलक्षणमित्थमुक्तम्- "इह मार्गश्चेतसोऽवक्रगमनं भुजंगमनलिकायानतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिर्प्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेष इति । तत्र प्रविष्टो मार्गपतितः मार्गप्रवेशयोग्यभावापन्नो मार्गाभिमुखः । - योगबिन्दु० १७९ पर स्वो० वृत्ति
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(ख) इन दोनों अवस्थाओं की प्राप्ति के संबंध में दो मत मिलते हैं - कुछ लोगों का मत है कि ये अवस्थाएँ अपुनर्बन्धकत्व प्राप्त होने के पश्चात् ही जीव में आती हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि ये अवस्थाएँ अपुनर्बन्धकत्व प्राप्त होने से पहले की हैं। इनमें से पहला मत आ० हरिभद्र का है और दूसरा मत योगबिन्दु की अज्ञातकर्तृक टीका में उद्धृत है, पर टीकाकार ने उसका निराकरण किया है। आ० हरिभद्र ने पंचसूत्रवृत्ति (सूत्र ५) में लिखा है कि अपुनर्बन्धकत्व प्राप्त होने के पश्चात् ही मार्गाभिमुख व मार्गपतित नामक अवस्थाएँ प्राप्त होती है। आचार्य अभयदेव ने मार्गाभिमुख और मार्गपतित को अपुनर्बन्धक से भिन्न और निम्नकोटि का माना है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि योगबिन्दु की वृत्ति में पूर्वपक्ष के रूप में उद्धृत दूसरा मत शायद अभयदेव की परम्परा से लिया गया हो। (द्रष्टव्य : पंचाशक ३/३) आ० हरिभद्र के उपदेशपद की टीका (श्लोक २५३) में आ० मुनिचन्द्र ने भी प्रथम गत का ही निर्देश किया है. किन्तु उपा० यशोविजय ने अपुनर्बन्धक द्वात्रिंशिका (१४/२ ४) में दोनों मतों का समन्वय भी किया है।
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