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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
३. समान कुल और आचार वाले, स्वधर्मी किन्तु भिन्न गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति के साथ वैवाहिक
सम्बन्ध करना। ४. चोरी, परस्त्रीगमन, असत्यभाषण आदि पाप कर्मों का त्याग करना। ५. अपने देश के कल्याणकारी आचार-विचार और संस्कृति का पालन करना। ६. किसी दूसरे की, विशेष रूप से राजा तथा राज्य कर्मचारियों की निन्दा न करना। ७. ऐसे घर में निवास करना जो न अधिक गुप्त हो और न अधिक खुला हो, जो सुरक्षा वाला भी
हो और जिसमें अव्याहत वायु एवं प्रकाश आ सके। ८. घर में बाहर निकलने के अनेक द्वार न रखना।
सदाचारी जनों की संगति करना। १०. माता-पिता की पूजा, उनका आदर-सम्मान करना । ११. उपद्रव वाले स्थान से दूर रहना। १२. निन्दनीय कार्य में प्रवृत्ति न करना। १३. आय के अनुसार व्यय करना। १४. वैभव/देश और काल के अनुसार वस्त्राभूषण धारण करना। १५. धर्मश्रवण करने की इच्छा, अवसर मिलने पर धर्मश्रवण, शास्त्रों का अध्ययन, उनका स्मरण,
जिज्ञासा-प्रेरित शास्त्रचर्चा, विरुद्ध अर्थ से बचना, अर्थज्ञान और तत्त्वज्ञान प्राप्त करना एवं
बुद्धि के इन सद्गुणों से युक्त होकर धर्म-श्रवण करना। १६. अजीर्ण होने पर भोजन का त्याग करना। १७. भोजन के समय सन्तोष से पथ्य-युक्त भोजन करना। १८. धर्म, अर्थ और काम आदि तीन पुरुषार्थों का इस प्रकार सेवन करना, जिससे किसी में बाधा
उत्पन्न न हो। १६. अपनी शक्ति के अनुसार अतिथि, साधु एवं दीन-दुखियों की सेवा करना। २०. मिथ्या-आग्रह से दूर रहना। २१. गुणों के प्रति पक्षपात होना और उनको प्राप्त करने का प्रयत्न करना। २२. निषिद्ध देशाचार एवं निषिद्ध कालाचार का त्याग करना। २३. अपनी शक्ति-अशक्ति अर्थात सामर्थ्य-असामर्थ्य का विचार करके कार्य करना। २४. आचारवृद्ध और ज्ञानवृद्ध जनों को अपने घर आमन्त्रित करना, सम्मानित करना एवं यथोचित
सेवा करना। २५. माता-पिता, पत्नी, पुत्र आदि आश्रितों का यथायोग्य भरण-पोषण करना। २६. दीर्घदर्शी होना। किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व उसके गुणों-अवगुणों पर विचार करना। २७. अपने हित-अहित, कृत्य-अकृत्य के प्रति विवेकशील होना। २८. कृतज्ञ होना। २६. लोकप्रिय होना। ३०. लज्जाशील होना, अनुचित कार्य करने में लज्जा का अनुभव करना। ३१. करुणाशील, दयावान होना। ३२. सौम्य स्वभावयुक्त होना। ३३. परोपकार करने में कर्मठ होना।
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