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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
का क्षय या विनाश नहीं हो पाता, जो इन निरोधों का आचरण करने से पूर्व ही जीव में प्रविष्ट हो गए हैं। यह स्थिति मोक्ष में बाधक है। अतः मोक्ष-प्राप्ति के लिए इन कर्म-पुद्गलों का नाश आवश्यक है। विनाश की यह प्रक्रिया जैन परिभाषा में 'निर्जरा' के नाम से जानी जाती है। सके लिए तप, संयम आदि की आवश्यकता है। ___'निर्जरा' मोक्ष-प्राप्ति का साक्षात् कारण है, क्योंकि निर्जरा की क्रिया जब उत्कृष्टता को प्राप्त कर लेती है, तब आत्म-प्रदेशों से संबंधित सर्वकर्मों का क्षय हो जाता हैं, और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
६. मोक्ष
'मोक्ष' बन्ध का प्रतिपक्षी है। इसलिए बन्ध के कारणों का अभाव होकर सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना ही 'मोक्ष' है। अभिप्राय यह है कि जब तक जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध रहता है तब तक उसका स्वाभाविक स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता, वह समस्त ज्ञानावरणादि कर्मों के आत्मा से पृथक हो जाने पर ही प्रादुर्भूत होता है। सम्पूर्ण कर्मों का क्षय तभी हो सकता है, जब नवीन कर्मों का बन्ध सर्वथा रोक दिया जाए और पूर्वबद्ध कर्मों की पूरी तरह निर्जरा कर दी जाए। जब तक नवीन कर्म आते रहेंगे, तब तक कर्म का आत्यन्तिक क्षय सम्भव नहीं हो सकता। नवीन कर्मों का आना संवर द्वारा अवरुद्ध होता है और पूर्वबद्ध कर्मों का निर्जरा द्वारा क्षय होता है । इसप्रकार जब आत्मा पूर्ण रूप से कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है तब वह अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है, वही अवस्था मोक्ष या मुक्ति कहलाती है। यह मोक्ष रूप जीव की अवस्था सादि होकर अनन्तकाल तक रहने वाली है तथा बाधक कर्मों के हट जाने से वह निराकुल, निर्बाध सुख से सम्पन्न है। ग. सम्यक्चारित्र
जिसप्रकार किसी रोगी की परीक्षा और निदान करने के अनन्तर चिकित्सक औषधि की व्यवस्था करता है किन्तु औषधि की व्यवस्था के पश्चात् भी यदि रोगी औषधि का प्रयोग न करे तो उसके निरोग होने की कोई सम्भावना हो ही नहीं सकती। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बाद यदि उसका जीवन में उपयोग न किया जाए तो वे दोनों भी पूर्णतः निरर्थक हो जाएँगे। इसलिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अनन्तर सम्यक्चारित्र का निबंधन जैनदर्शन और जैन-साधना-पद्धति में किया गया है। इस प्रसंग में यदि यह कहा जाए कि सम्यक्चारित्र ही जैन साधना का मुख्य अभीष्ट है और सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान उसकी केवल पूर्वपीठिका हैं तो अनुचित न होगा। अर्थ : सम्यक्चारित्र का अर्थ है - चित्तगत मलिनताओं को नष्ट करना। यहाँ मलिनता से तात्पर्य रागद्वेषादि कर्ममल हैं। उनको दूर करने के अनन्तर ही आत्मा में पूर्ण निर्मलता आ सकती है, जिसके लिए सम्यक्चारित्र का विधान किया गया है। महर्षि पतञ्जलि ने भी निरोधव्य क्लिष्ट वृत्तियों में अविद्या और अस्मिता के साथ राग-द्वेष और अभिनिवेश का निबन्धन किया है तथा क्लेशों की निवृत्ति के लिए उन्होंने
तपसा निर्जरा च। - तत्त्वार्थसूत्र ६/३ २. तत्त्वार्थसूत्र, १०/२, ३: ज्ञानार्णव, ३/६
श्रावकप्रज्ञप्ति, ८३ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ८६: उत्तराध्ययनस, २५/२६, ३० ज्ञानसार, ६/२.३, २४, १०/१, ११/८..: अध्यात्मोपनिषद, ३/१३. १४
रत्नकरण्डश्रावकाचार, ३/१/४७ ६. अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पंचक्लेशाः । -- पातञ्जलयोगसूत्र, २/३
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