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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
भी नीच-गतियों के भयंकर दुःख भी भोगने पड़ते हैं। किसी की कोई वस्तु चुराने से मन भी अशांत रहता है क्योंकि सदा उसे अपने पकड़े जाने का भय रहता है। इतना ही नहीं बन्धु-बान्धव भी उसका साथ छोड़ देते हैं। आ० शुभचन्द्र ने चौर्यकर्म को अनेक प्रकार से अनर्थकार सिद्ध करने का प्रयास किया है। श्रावक को ऐसे दोषयुक्त चौर्यकर्म का त्याग कर देना चाहिए। स्थूल अदत्तादानविरमण या अचौर्य-अणुव्रत के अतिचार १. स्तेनाहत स्तेन अर्थात् चोर द्वारा चुराई गई मूल्यवान वस्तुओं को लोभवश ग्रहण
करना, खरीदना। २. तस्करप्रयोग चोरों को चोरी करने की प्रेरणा देना, या तस्करों को तस्करी से माल लाने
की प्रेरणा देना अर्थात् चोरी के उपाय बताना। ३. विरुद्धराज्यातिक्रम राज्य की ओर से निर्धारित नियमों का उल्लंघन करके चोरी से कर आदि
को बचाकर एक राज्य से दूसरे राज्य में वस्तुओं को ले जाना और वहाँ
से अपने यहाँ ले आना। ४. कूटतुला-कूटमान तराजू तथा नापने तोलने के झूठे पैमाने रखना तथा कम तोलना, कम
नापना आदि। ५. प्रतिरूपक-व्यवहार अधिक मूल्य वाली वस्तु में उसी के सदृश अल्प मूल्य वाली वस्तु मिलाकर
बेचना। ४. स्वदारसंतोष, परदारत्याग या ब्रह्मचर्य-अणव्रत __ परस्त्री का त्याग और स्वस्त्रीसंतोष चतुर्थ अणुव्रत है, इसे 'ब्रह्मचर्याणुव्रत' भी कहा जाता है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्यव्रत का पालन अत्यावश्यक है। ब्रह्मचर्यव्रत के बिना अन्य व्रत मोक्ष-प्राप्ति में पूर्णतया सार्थक नहीं हो पाते और न ही ब्रह्मचर्यव्रत के अभाव में अन्य व्रतों की समग्र आराधना की जा सकती है। __ तत्त्वार्थसूत्र में प्रमत्तयोग अर्थात् कषायजनित भावों से मिथुनक्रिया करने को 'अब्रह्म' कहा गया है। अब्रह्म का त्याग 'ब्रह्मचर्य' कहलाता है। ब्रह्मचर्य का वास्तविक अर्थ आत्मा में रमण करना है। यह आत्मरमण मन, वाणी और काय के द्वारा इन्द्रियों पर संयम करने से ही हो सकता है। श्रावक के ब्रह्मचर्याणुव्रत की मर्यादा परस्त्री के त्याग और स्वस्त्री में संतोष तक सीमित रखी गई है। जैन साहित्य में इस व्रत की पर्याप्त चर्चा हई है। आ० शुभचन्द्र एवं आ० हेमचन्द्र ने स्त्री जाति की निन्दा करते हए स्त्री-संसर्ग से उत्पन्न दोषों का विस्तृत विवेचन किया है।
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१. योगशास्त्र,२/६६
ज्ञानार्णव, १०/१०: योगशास्त्र,२/७० ज्ञानार्णव, १०/१०, ११; योगशास्त्र, २/७१ द्रष्टव्य : ज्ञानार्णव, अध्याय १० तत्त्वार्थसूत्र, ७/२२: श्रावकप्रज्ञप्ति. २६८: योगशास्त्र. ३/६२ तत्त्वार्थसूत्र, ७/११ उपासकदशांगसूत्र. १/१६: श्रावकप्रज्ञप्ति, २७० सर्वार्थसिद्धि, ७/२०: रत्नकरण्डश्रावकाचार, ३/१३: पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ११०; सागारधर्मामृत, ४/५२: कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३३८,
ज्ञानार्णव, अध्याय ११; योगशास्त्र, २/७६-७६ ६. ज्ञानार्णव, अध्याय १२-१४ १०. योगशास्त्र. २/७८-१६
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