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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
आदि कषायों का प्रवृत्त होना 'भावहिंसा है और प्राणी के प्राणों का विनाश करना अथवा उसे किसी प्रकार का कष्ट पहुँचाना 'द्रव्यहिंसा' है। दोनों प्रकार की हिंसा का सर्वथा त्याग अहिंसा है। परन्त अहिंसाणुव्रती श्रावक पूर्ण रूप से हिंसा का त्याग करने में असमर्थ होता है, वह आंशिक रूप से ही हिंसा का त्याग करता है। स्थूल प्राणातिपातविरमण या अहिंसाव्रत के अतिचार' १. बन्ध
क्रोधपूर्वक किसी भी प्राणी को बांधना, उसके अभीष्ट स्थान में
जाने से रोकना। २. वध
क्रोधपूर्वक किसी भी प्राणी को प्रताड़ित करना, पीड़ा पहुँचाना,
या चाबुक, डंडे अथवा किसी हथियार से मारना। ३. छेद या छविच्छेद क्रोधपूर्वक किसी भी प्राणी के अंग या चमड़ी आदि को काटना
अथवा सिर आदि फोड़ना। ४. अतिभारारोपण क्रोधपूर्वक बैल, ऊँट, गधा, मनुष्य आदि किसी के भी कंधे, पीठ
या सिर पर शक्ति से अधिक बोझ लादना अथवा सामर्थ्य से
अधिक काम लेना। ५. अन्नपाननिरोध क्रोधपूर्वक, अधीनस्थ किसी पशु या मनुष्य को अन्न-पानी या
घास-चारा न देना अथवा समय पर या उचित मात्रा में न देना।
२. स्थूल मृषावादविरमण या सत्याणुव्रत ___ द्वितीय अणुव्रत में असत्य के त्याग रूप सत्य के पालन की चर्चा है। सत्याणुव्रती साधक के लिए मृषावाद (असत्यभाषण) का सर्वथा त्याग करना असम्भव होता है, इसलिए उसके लिए स्थूल मृषावाद के त्याग का विधान प्रस्तुत किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में सत्य के स्वरूप को समझने के लिए असत्य की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि कषायभाव से अयथार्थ भाषण करना 'असत्य' है। जो वचन हितकारी हैं, पाप से रक्षा करते हैं, वे असत्य होते हुए भी बोलने वाले के शुभ विचारों का द्योतक होने से 'सत्य' कहे जाते हैं। इसके विपरीत अप्रिय एवं अहितकारी वचन सत्य होने पर भी असत्य माने जाते हैं। अतः प्रिय, हितकारी और यथार्थवचन बोलना ही सत्य का लक्षण है। इसीलिए आ० शुभचन्द्र ने असत्यवचन को अहितकर और सत्यवचन को हितकर मानते हुए असत्य की निन्दा और सत्य की.प्रशंसा की है।
जैन शास्त्रों में झूठी गवाही देना, झूठा दस्तावेज लिखना, किसी की गुप्त बात को प्रकट करना, चुगली करना, किसी को झूठ बता कर गलत रास्ते पर ले जाना, आत्मप्रशंसा और परनिन्दा आदि को स्थूल
१. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ४३
तत्त्वार्थसूत्र, ७/२०; पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १८३; अमितगतिश्रावकाचार, ७/३. श्रावकप्रज्ञप्ति, २५८; धर्मबिन्दु, ३/२३;
योगशास्त्र.३/६०: रत्नकरण्डश्रावकाचार, ३/८ ३. उपासकदशांगसूत्र, १/१४
असदभिधानमनृतम् । - तत्त्वार्थसूत्र, ७/६ ५. (क) असत्यमपि तत्सत्यं यत्सत्त्वाशंसकं वचः ।
सावधं यच्च पुष्णाति तत्सत्यमपि गर्हितम्।। - ज्ञानार्णव, ६/३ (ख) योगशास्त्र, १/२१; तुलना : गीता ७/१५; मनुस्मृति, ४/१३८ ६ द्रष्टव्य : ज्ञानार्णव, अध्याय ६
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