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योग और आचार
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६. बन्ध
चेतन के साथ अचेतन कर्म-परमाणुओं के सम्बन्ध को 'बन्ध' कहते हैं।' जब जीव आस्रव के सम्पर्क में आता है तो उसका अपना यथार्थ स्वरूप आच्छादित हो जाता है और वह बन्धन में पड़ जाता है, इसलिए कहा गया है कि कषायसहित होने से जीव द्वारा कर्म-योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना 'बन्ध' है। __ जैनदृष्टि से बन्ध चार प्रकार का होता है - स्थितिबंध, प्रकृतिबंध, अनुभागबंध, और प्रदेशबंध। प्रकृति व प्रदेशबन्ध का आधार कायादि व्यापार रूप योग है, जबकि अनुभाग व स्थिति-बंध का आधार कषाय है। कर्म-बन्ध के मुख्य हेतु राग-द्वेष हैं। बन्ध के पांच हेतु हैं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। उक्त बन्ध-हेतु पातञ्जलयोगसूत्र में पंच क्लेशों के रूप में वर्णित हैं। जैनदर्शन में उल्लिखित मिथ्यात्व पातञ्जलयोग में अविद्या के रूप में वर्णित है। जैन-परम्परा में वर्णित अविरति पातञ्जलयोग के राग-द्वेष के समकक्ष है। प्रमाद जो कि असावधानी का ही पर्याय है, योगसूत्र में चित्त को विक्षिप्त करने वाले विघ्नों में परिगणित है।
७. संवर ___ संवर का अर्थ है – “निरोध' । जैन मतानुसार आस्रव का निरोध संवर' है। दूसरे शब्दों में आत्मा के प्रति आने वाले कर्मों का रुक जाना ही 'संवर' है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि जीव का कर्म-पुद्गलों से संबंध न होने पाये। इसलिए जीव के कर्म-पुद्गल से संबंध स्थापित न होने और उसके कारणों के निरोध को 'संवर' कहा गया है। वस्ततः आस्रव तथा बंध का निरोध ही 'संवर' है। फलप्राप्ति की अभिलाषा के बिना किए गए सभी सत्कर्म संवर रूप होते हैं।
यह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र नामक उपायों से सिद्ध होता है।" इनका विस्तृत विवेचन सम्यक्चारित्र के निरूपण के संदर्भ में किया जायेगा।
८. निर्जरा
निर्जरा, क्षय और वेदना अथवा निर्जरण, क्षपण और नाश ये तीनों समानार्थक शब्द हैं। अनादिकाल से संचित शुभ तथा अशुभकर्मों का आत्मा से एकदेश (अंशतः) पृथक् होना 'निर्जरा' है। आ० शुभचन्द्र एवं आ० हेमचन्द्र प्रभृति आचार्यों के अनुसार संसार के जन्म-मरण के हेतुभूत कर्मों को आत्मा से अंशतः अलग करना निर्जरा' है। इससे स्पष्ट है कि निर्जरा में कर्मों का सर्वथा क्षय नहीं होता। समिति, अनुप्रेक्षा, गुप्ति, परीषह तथा चारित्र में निर्दिष्ट उपायों और निरोधों के आचरण से जीव का सम्बन्ध कर्मपुद्गलों से नहीं हो पाता तथा मोक्ष-मार्ग बहुत कुछ निष्कंटक हो जाता है। किन्तु इन निरोधों के पालन से उन कर्म-पुद्गलों
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१. उत्तराध्ययनसूत्र, १४/१४ २. तत्त्वार्थसूत्र.८/२. ३: श्रावकप्रज्ञप्ति, ८०
तत्त्वार्थसूत्र, ८/३; श्रावकप्रज्ञप्ति, ८०, ज्ञानार्णव, ६/४५ श्रावकप्रज्ञप्ति, गा०८० स्वो० वृत्ति तत्त्वार्थसूत्र, ८/१, ज्ञानार्णव, ६/४; योगशास्त्र, ४/७५
तत्त्वार्थसूत्र, ६/१: ज्ञानार्णय, २/१२८ ७. तत्त्यार्थसूत्र.४/१; श्रावकप्रज्ञप्ति, ८१ ।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, ८/२४: श्रावकप्रज्ञप्ति, ८२ सर्वार्थसिद्धि. १/४/१८, तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति, १४ ज्ञानार्णव. २/१४०; योगशास्त्र, १/१६ स्वो० वृत्ति ; योगशास्त्र, ४/८६, स्थानांगसूत्र, अभयदेववृत्ति, ४/१/२५० पृ० १३०; कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १०३
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