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योग और आचार
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अभ्यास और वैराग्य रूप साधना का पथ प्रदर्शित किया है। जिसने सुख का अनुभव प्राप्त किया है उसको सुख की अनुस्मृतिपूर्वक सुख और उनके साधन में जो गर्दा अर्थात् तृष्णा और लोभ होता है उसे राग कहते हैं। इसके विपरीत जिसने दुःख का अनुभव प्राप्त किया है उसको दुःख की अनुस्मृतिपूर्वक दुःख और उनके साधन में जो प्रतिघ अर्थात् द्वेषभावना या क्रोध और उसको मारने की इच्छा होती है, उसे द्वेष कहते हैं।
जैसा ऊपर कहा गया है कि सम्यक्चारित्र का अर्थ चित्तगत मलिनताओं को दूर करना है किन्तु जैन आचार्यों ने इसे अनेक प्रकार से परिभाषित किया है। उनके अनुसार सांसारिक बन्धन को उत्पन्न करने वाली क्रियाओं का निरोध करते हुए शुद्ध आत्मस्वरूप का लाभ करने के लिए सम्यग्ज्ञानपूर्वक जो क्रियाएँ की जाती हैं उन्हें 'सम्यक्चारित्र' कहते हैं। इसके लिए साधक को ऐसी क्रियाओं का पालन करना चाहिए जिससे आत्मा में समत्व की स्थापना हो सके। आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यक्चारित्र को धर्म की संज्ञा देते हए कहा है कि मोह एवं क्षोभ से रहित आत्मा की शद्धावस्था को प्राप्त करना समत्व है और आत्मा का यह समत्वधर्म ही चारित्र है। अन्यत्र उन्होंने इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट भावों में समताभाव रखने को सम्यक्चारित्र कहा है। इस कथन में एक प्रकार से पूर्वोक्त कथन का विशदीकरण ही माना जा सकता
है।
जैन-परम्परा में सम्यक्चारित्र के लिए आचार-विचार का विशेष महत्त्व है। यहाँ यह स्वीकार किया गया है कि आचार-विचार के सम्यक पालन से ही चारित्र का उत्कर्ष हो सकता है। आ० शुभचन्द्र और आ० हेमचन्द्र उपर्युक्त कथन को ही प्रकारान्तर से कहने का प्रयत्न करते हैं। यद्यपि आ० हेमचन्द्र ने उत्तरोत्तर गुणों की अपेक्षा से पांच समितियों एवं तीन गुप्तियों से पवित्र साधुओं की शुभवृत्ति को भी 'सम्यक्चारित्र' के नाम से अभिहित किया है। आ० हरिभद्रसूरि ने उत्तरोत्तर चित्तशुद्धि के उद्देश्य से ध्यानादि क्रियाओं के अभ्यास को चारित्र माना है।
महर्षि पतञ्जलि ने अष्टांगयोग में यम और नियम की व्यवस्था द्वारा राग-द्वेष आदि चित्त के कालुष्य को दूर करने का निर्देश दिया है। उनके अनुसार हिंसा की उत्पत्ति काम, क्रोध, और लोभ के द्वारा ही होती है, उनके बिना नहीं तथा काम, क्रोध और लोभ राग-द्वेष के ही विकार हैं। अतः योग का साधक अहिंसादि का पालन करते हए सर्वप्रथम इन चित्त-विकारों को दूर करने का अभ्यास करता है। इसके अतिरिक्त नियमों में शौच-साधना के द्वारा राग-द्वेषादि मानसिक मलों की निवृत्ति के लिए पतञ्जलि ने स्पष्ट
१. अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधः । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/१२ २. सुखाभिज्ञरय सुखानुस्मृतिपूर्वः सुखे तत्साधने वा यो गर्धस्तृष्णा लोभः स रागः इति। -- व्यासभाष्य, पृ० १६४
दुःखाभिज्ञस्य दुःखानुस्मृतिपूर्वो दुःखे तत्साधने वा यः प्रतिधो मन्युर्जिघांसा क्रोधः स द्वेषः। - व्यासभाष्य, पृ० १८४ ४. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, पृ०४११ ५. प्रवचनसार, १/७
पंचास्तिकाय, १०७: मोक्षप्राभृत, ३८
जैन आचार : साधना और सिद्धान्त, प्रस्तावना, पृ० १६ ८. ज्ञानार्णव, ./१ ६. सर्वसावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमिष्यते। - योगशास्त्र, १/१६. १०. वही, १/३४ ११. योगबिन्दु, ३७१ १२. वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् ।
- पातञ्जलयोगसूत्र, २/३४
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