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योग और आचार
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है।' यहाँ स्वर्णत्व ध्रौव्य है और पूर्ववर्ती आकारों का विनाश तथा उत्तरवर्ती आकारों का निर्माण क्रमशः व्यय और उत्पाद हैं। इसीप्रकार दूध से दही बनाना दूध का विनाश है और दही की उत्पत्ति उत्पाद है, तथा दोनों में रहने वाला गोरसत्व ध्रौव्य है। इसप्रकार स्पष्ट है कि सत् पदार्थ एक ही समय में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप होता है। ___ जैन आचार्यों ने द्रव्य का लक्षण करते हुए द्रव्य की एक अन्य विशेषता यह बताई कि द्रव्य गुण, पर्याय स्वरूप है। अर्थात् गुण और पर्याय भी द्रव्य रूप हैं क्योंकि पर्याय से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय नहीं होती। उसी प्रकार द्रव्य के बिना गुण और गुण के बिना द्रव्य नहीं होता। अर्थात् द्रव्य और गुण परस्पर अभिन्न हैं परन्तु द्रव्य की विविध पर्यायों में परिणमन होता रहता है। द्रव्य जब जिस रूप में परिणमन करता है, तब वह उसी रूप में हो जाता है। द्रव्य में परिणाम-जनन की शक्ति ही उसका गुण है, और गुणजन्य परिणाम पर्याय है। इसलिए द्रव्य गुण, पर्याय वाला है।
नदर्शन में वर्णित वस्त की उत्पाद. व्यय और ध्रौव्य रूप त्रिगणात्मकता पतञ्जलि प्रणीत योगसत्र में भी धर्म और धर्मी, आकृति और द्रव्य नाम से निर्दिष्ट है। वहाँ भाष्यकार व्यास लिखते हैं कि जैसे रुचक स्वस्तिकादि अनेकविध आकारों को धारण करता हुआ भी सुवर्णपिंड अपने मूल स्वरूप का परित्याग नहीं करता अर्थात् सुवर्ण असुवर्ण नहीं हो जाता, अपितु उसके आकार विशेष ही अन्यान्य स्वरूपों को धारण करते हैं। इसी प्रकार धर्मी में रहने वाले धर्मों का ही अन्यथाभाव भिन्न-भिन्न स्वरूप में परिवर्तन होता है, धर्मी रूप द्रव्य का नहीं। धर्मी द्रव्य तो सदा अपनी मूल स्थिति में रहता है। इसप्रकार धर्मों के उत्पाद और विनाश एवं धर्मी के ध्रौव्य तथा उत्पत्ति, विनाश और स्थिति रूप वस्तु की सिद्धि में कोई न्यनूता प्रतीत नहीं होती। अतः स्पष्ट है कि वस्तु अनन्त-धर्मात्मक है। अनेकान्तवाद __महर्षि पतञ्जलि ने निरोद्धव्य वृत्तियों में प्रमाण, विपर्यय, विकल्प निद्रा और स्मृति, इन पांच वृत्तियों को स्वीकार किया है। ये वृत्तियाँ क्लिष्ट और अक्लिष्ट भेद से दो प्रकार की हैं।१२ क्लिष्ट का अर्थ हैक्लेशहेतुक । भाष्यकार व्यास के अनुसार जो वृत्तियाँ धर्म, अधर्म तथा वासना समूह की उत्पत्ति करने वाली एवं अविद्या आदि क्लेशमलक हैं. वे क्लिष्ट कहलाती हैं।३ महर्षि पतञ्जलि ने इन्हें अविद्या, अस्मिता. राग, द्वेष और अभिनिवेश के भेद से पांच प्रकार का माना है।१४ अभिनिवेश का अर्थ है - 'अतिशय आग्रह।
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प्रवचनसार, १/२० पर तत्त्वदीपिकाटीका शास्त्रवार्तासमुच्चय, ७/३: आत्ममीमांसा, ६०; अध्यात्मोपनिषद्, ४४
आत्ममीमांसा, ५१: षड्दर्शनसमुच्चय, ५७ ४. तत्त्वार्थसूत्र, ५/३७: पंचास्तिकाय, १०
प्रवचनसार, १/१०: पंचास्तिकाय, १२
पंचास्तिकाय, १८ ७. तत्त्यार्थराजयार्तिक,५/३८/४३
प्रवचनसार, १/६ ६ तत्त्वार्थसूत्र, ५/३७; प्रवचनसार, १/२
तत्र धर्मस्य धर्मिणि वर्तमानस्यैवाध्वस्वतीतानागतवर्तमानेषु भावान्यथात्वं भवति न तु द्रव्यान्यथात्वं यथासुवर्णभाजनस्य
भित्त्यान्यथा क्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवति न सुवर्णान्यथात्वमिति ।- व्यासभाष्य, पृ० ३३८. ३३६ ११. प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ।- पातञ्जलयोगसूत्र, १/६
वृत्तयः पंचतयः क्लिष्टाऽक्लिष्टाः । - वही, १/५ १३. क्लेशहेतुकाः कर्माशयप्रचयेक्षेत्रीभूताः क्लिष्टाः । - व्यासभाष्य, पृ २३ १४. अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्चक्लेशाः ।- पातञ्जलयोगसूत्र, २/३
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