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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
७. स्यात्-अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य : यह भंग तृतीय और चतुर्थ भंग को जोड़कर बना है। इसमें सत्त्वअसत्त्व सहित अवक्तव्य विशेषण वाले ज्ञान की उत्पत्ति का कथन किया गया है। जैसे - कथंचित् घट है, नहीं है, और अवक्तव्य है। यहाँ पहले कथन में विधि की और दूसरे में निषेध की विवक्षा करके तीसरे कथन में युगपद् विधि - निषेध की अवक्तव्यता सूचित की गई है।
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यद्यपि अनन्तधर्मात्मक वस्तु का कथन करने वाले शब्द भी अनन्त हो सकते हैं, तथापि उन सब कथनों का समाहार उपर्युक्त सप्तभंगों में हो जाता है। इन सातभंगों का प्रत्येक भंग निश्चयात्मक है, अनिश्चयात्मक नहीं। इसलिए कई स्थलों पर 'एव' (ही) शब्द का प्रयोग होता भी देखा गया है। जैसे 'स्याद् घट अस्त्येव' । यहाँ पर 'एव' शब्द स्वचतुष्टय की अपेक्षा निश्चित रूप से घट का अस्तित्व प्रकट करता है । परन्तु जहाँ 'एव' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता, वहाँ अनिश्चयात्मकता की स्थिति नहीं समझनी चाहिए।
इस प्रकार जैनदर्शन का स्याद्वाद सात परामर्शों को समानांतर स्थापित करता है। इन परामर्शों को मानस में एक साथ लाने पर जो सिद्धान्त बनता है वह 'अनेकान्त सिद्धान्त' अर्थात् 'अनेकान्तवाद' कहलाता है। यह सिद्धान्त जीवन के किसी भी प्रसंग में, चाहे वह व्यावहारिक जगत् से संबंधित हो अथवा तात्त्विक चिन्तन से, मनुष्य के जीवन से अभिनिवेश की निवृत्ति कराने में आधार का कार्य करता है और इस प्रकार पतञ्जलि द्वारा निर्देशित अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश' में अन्तिम क्लेश के समूल उच्छेद में हेतु बनता है। अभिनिवेश की निवृत्ति होना प्रारम्भ होते ही स्वतः राग-द्वेष की भी निवृत्ति होने लगती है, अस्मिता भी शिथिल हो जाती है और उसका अन्तिम परिणाम होता है। • अविद्या का समूल उच्छेद । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पतञ्जलि की क्लेश निवृत्ति की साधना में तत्त्व-चिन्तन की दृष्टि से किए जाने वाले अभ्यास और वैराग्य में जैनदर्शन का अनेकान्त सिद्धान्त उपयोगी सिद्ध होता है।
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ज्ञेय विषय
जैनदर्शन यथार्थवादी होने के साथ-साथ द्वैतवादी भी है। द्वैतवादी होने के कारण जैनदर्शन में मुख्य रूप से दो ही तत्त्व माने गए हैं- जीव और अजीव । दोनों ही तत्त्व सह अस्तित्त्व वाले होते हुए भी एक दूसरे से भिन्न हैं । चैतन्य लक्षण वाले जितने भी तत्त्व विशेष हैं, वे सब जीव विभाग के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसके विपरीत जिनमें चैतन्य नहीं है ऐसे सभी तत्त्वों का समावेश अजीव विभाग के अन्तर्गत हो जाता है। इन दो तत्त्वों के आधार पर ही जैन दार्शनिक परम्परा में सात या नौ तत्त्वों की कल्पना की गई
। साधारणतः व्यवहारिक दृष्टिकोण से तत्त्व / पदार्थ के सात भेद माने गए हैं- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष। कहीं-कहीं पुण्य और पाप को मिलाकर नौ तत्त्व माने गए हैं। वास्तव में शुभकर्मों का आगमन पुण्यास्रव और अशुभकर्मों का आगमन पापास्रव है, तथा शुभ कर्मों का बंध पुण्यबंध और अशुभकर्मों का बंध पापबन्ध है । इस दृष्टि से पुण्य और पाप इन दो तत्त्वों का अन्तर्भाव
पुच्छावसेण भंगा सत्तेव दु संभवदि जस्स जथा ।
वत्थुत्ति तं पउच्चदि सामण्णविसेसदो णियदं ।। - उद्धृत तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० २५३ अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पंचक्लेशाः । - पातञ्जलयोगसूत्र, २/३
२.
३. उत्तराध्ययनसूत्र, ३६: द्रव्यसंग्रह, २३ : अनुयोगद्वारसूत्र १२३: प्रवचनसार, २ / ३५
४.
सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० ३३
५.
१.
६.
(क) जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । - तत्त्वार्थसूत्र, १/४
(ख) जीवाजीवास्त्रवो बन्धः संवरो निर्जरा ततः ।
मोक्षच्चैतानि सप्तैव तत्त्वान्यूचुर्मनीषिणः । । - ज्ञानार्णव, ६/८
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स्थानांगसूत्र, ६ / ६६५ उत्तराध्ययनसूत्र, २८ / २४
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