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योग और आचार
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पतञ्जलि द्वारा स्वीकृत अविद्या की परिभाषा को लगभग उन्हीं शब्दों में ग्रहण कर लिया है। पतञ्जलि के अनुसार अनित्य, अपवित्र, दुःखमय और अनात्म पदार्थों में क्रमशः नित्य, पवित्र, सुखमय और आत्मा का ज्ञान होना अविद्या है।
सम्यग्दर्शन के दोष : अध्याय के प्रारम्भ में यह चर्चा की गई है कि सम्यग्दर्शन तीर्थंकरों द्वारा प्रदर्शित मार्ग का प्रथम सोपान है। जैसा कि लोक में आभाणक प्रसिद्ध है “श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति"३ अर्थात् किसी भी भद्रकार्य में बहुत विघ्न हुआ करते हैं। मोक्ष-साधना के प्रथम सोपान पर पदार्पण करते हुए भी अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जिन्हें सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) के दोष के नाम से स्मरण किया जाता है। आ० हरिभद्र एवं आ० हेमचन्द्र के अनुसार सम्यक्त्व के पांच मुख्य दोष हैं - १. शंका
वीतराग मुनियों के वचनों पर श्रद्धा के स्थान पर संदेह उत्पन्न
होना। २. (आ)कांक्षा
परधर्म स्वीकार करने की कामना करना। ३. विचिकित्सा स्वधर्माचरण के फल में सन्देह रखना। ४. परपाषण्ड-प्रशंसा सर्वज्ञ-प्रणीत मत के अतिरिक्त अन्य मत की अथवा अन्य मत वाले
मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करना। ५. परपाषण्डी-संस्तव सर्वज्ञ-प्रणीत मत के अतिरिक्त अन्य मत वाले मिथ्यादष्टियों
से गाढ़ परिचय अथवा रागात्मक आस्था रखना। आ० शुभचन्द्र आदि कुछ आचार्यों ने सम्यग्दर्शन में २५ दोषों की सम्भावना व्यक्त की है, जिन्हें उन्होंने चार वर्गों में विभाजित कर रखा है। वे हैं - १. मूढ़ता अज्ञानता। यह अज्ञानता तीन प्रकार की हो सकती है - धर्म के विषय में,
देव के विषय में और गुरु के विषय में जिसे क्रमशः धर्ममूढ़ता, देवमूढ़ता और
गुरुमूढ़ता कहा जाता है। २. मद
अन्तःकरण के भीतर अभिमान का प्रादर्भाव होना। ये आठ प्रकार का होता है, यथा - जातिमद, कुलमद, बलमद, लाभमद, ज्ञानमद, तपमद, रूपमद
और ऐश्वर्यमद, जो क्रमशः मातृवंश, पितृवंश, शारीरिक बल, पूजा-प्रतिष्ठा, बुद्धि, उपवास आदि शारीरिक सौन्दर्य और ऐश्वर्य के आश्रय से अन्तःकरण
में प्रादुर्भूत होता है। ३. अनायतन न आयतन। आयतन अर्थात् स्थान। जो धर्म के आयतन होते हैं वे धर्मायतन
कहे जाते हैं। किन्तु जो धर्म के वस्तुतः स्थान नहीं होते, वे अनायतन कहलाते हैं और वे संक्षेप में छः हैं - कुदेव, कुश्रुत, कुलिंगी (कुगुरु), तथा
गतिरनित्याशुन्यकातिता ।। - ज्ञानसार, १४/- पातञ्जलयोगसूत्र, २/
१. नित्यशुच्यात्मताख्यातिरनित्याशुच्यनात्मसु ।
अविद्या तत्त्वविद्या, योगाचार्यैः प्रकीर्तिता ।। - ज्ञानसार, १४/१ अनित्याऽशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखाऽऽत्मख्यातिरविद्या ।। - पातञ्जलयोगसूत्र, २/५ उद्धृत योगशतक, स्वोपज्ञवृत्ति, गा० १
श्रावकप्रज्ञप्ति, ८६ ५. योगशास्त्र, २/१७
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