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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
में अत्याधिक आसक्ति होती है वे जो भी कार्य करते हैं. वे सब उनके कर्मबन्धन के कारण बनते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य ऐहिक तथा पारलौकिक फल की कामना होता है। चरमावर्त काल में कर्मों की मलिनता कम हो जाती है। अतः इस कालावधि में प्रविष्ट जीव के कोई अनुष्ठान असद् नहीं होते, अपितु वे 'तद्धेतु नामक चतुर्थ अनुष्ठान की कोटि में आते हैं। अपुनर्बन्धकादि योगाधिकारियों का अनुष्ठान सदनुष्ठान ही होता है। उपा० यशोविजय के अनुसार आदर, क्रिया करने में प्रीति, श्रद्धा, अविघ्न, ज्ञानादि सम्पत्ति की प्राप्ति, धर्मादि के वास्तविक स्वरूप को जानने वाले मुनियों की सेवा करना आदि सदनुष्ठान के लक्षण हैं। असदनुष्ठान योग-साधना में बाधा उत्पन्न करते हैं, इसलिए हरिभद्र ने उनका निषेध कर सदनुष्ठानों का पालन करने का उपदेश दिया है। उक्त पांचों अनुष्ठानों का स्वरूप इसप्रकार है -.
१. विषानुष्ठान
इस अनुष्ठान में साधक का उद्देश्य धन, समृद्धि एवं कामभोगों की उपलब्धि, कीर्ति, आहार, उपाधि, पूजा तथा ऋद्धि आदि प्राप्त करना होता है। जिसप्रकार 'विष' उसे खाने वाले व्यक्ति का तत्काल हनन कर देता है, उसीप्रकार इस जन्म में प्राप्त होने वाले अनुकूल खान-पान आदि भोगों की प्राप्ति की आकांक्षा से किया हुआ अनुष्ठान कर्ता के शुभचित्त के शुभ-परिणामों को तत्क्षण नष्ट कर देता है। इसलिए इस अनुष्ठान को 'विष' की संज्ञा दी गई है। महान अनुष्ठान भी लब्धि आदि की प्रार्थना से किये जाने पर तुच्छ बन जाते हैं, तथा साधक में लघुता का भाव उत्पन्न करते हैं। रागादि भावों की अधिकता के कारण किये गये साधक के लिए हेय माना गया है।
२. गरानुष्ठान
दिव्य भोगों, स्वर्गादि सुखों की अभिलाषा से किये जाने वाला धार्मिक अनुष्ठान पुण्य कर्म के फल की पूर्णता को कालान्तर में क्षय कर देता है, इसलिए मनीषीजन इसे 'गरानुष्ठान' कहते हैं। जैसे कुद्रव्यों/
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योगबिन्दु, १५०, १५१: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका,१३/१० (क) चतुर्थमेतत् प्रायेण ज्ञेयमस्य महात्मनः ।
सहजाल्पमलत्वं तु युक्तिरत्र पुरोदिता ।। - योगबिन्दु, १६३ (ख) सदनुष्ठानरागेण तद्धेतुर्मार्गगामिनाम् ।
एतच्च चरमावर्तेऽनाभोगादेविना भवेत् ।। - अध्यात्मसार, ३/१०/१७ आदरः करणे प्रीतिरविघ्नः सम्पदागमः । जिज्ञासा तज्ज्ञसेवा च सदनुष्ठानलक्षणम् ।। - वही, ३/१०/२६ (क) विष लध्याद्यपेक्षात् इदं सच्चित्तमारणात्।
महतोऽल्पार्थनाज्ज्ञेयं लघुत्वपादनात्तथा।। - योगबिन्दु. १५६ (ख) आहारोपधि-पूजर्द्धि-प्रभृत्याशंसया कृतम्।
शीघ्र सच्चित्तहन्तृत्वाद्विषानुष्ठानमुच्यते।। स्थावर जंगमं चाऽपि तत्क्षणं भक्षितं विषम्। यथा हन्ति तथेदं सच्चित्तमैहिकभोगतः।। - अध्यात्मसार. ३/१०/३.४ विषं लब्ध्याद्यपेक्षातः क्षणात्सच्चित्तमारणात्। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १३/१२: योगविंशिका टीका, १२ दिव्यभोगाभिलाषेण गरमाहुर्मनीषिणः ।
एतद विहितनीत्येव कालान्तरनिपातनात्।। - योगबिन्दु, १५७ (ख) दिव्य-भोगाभिलाषेण कालान्तर-परिक्षयात् ।
स्वादृष्टफलसम्पूर्तेर्गराऽनुष्ठानमुच्यते ।। - अध्यात्मसार, ३/१०/५ (ग) दिव्य-भोगाभिलाषेण गरः कालान्तरे क्षयात् ।। -द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १३/१५ (घ) द्रष्टव्य : योगविंशिका, १२. घर यशो० वृ०
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